Atmadharma magazine - Ank 240
(Year 20 - Vir Nirvana Samvat 2489, A.D. 1963)
(Devanagari transliteration).

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: १८ : आत्मधर्म: २४०
(श्रीमद् राजचंद्रना लखाणो वगेरेमांथी)


*सम्यक्त्व होय ने शास्त्र मात्र बे शब्द जाणे तो पण मोक्षना काममां आवे मोक्षना काममां जे
ज्ञान न आवे ते अज्ञान. (श्रीमद् राजचंद्र उपदेशमांथी)
* पूर्वे ज्ञानीनी वाणी आ जीवे निश्चयपणे कदी सांभळी नथी, अथवा ते वाणी सम्यक् प्रकारे
माथे चडावी नथी, एम सर्वदर्शीए कहयुं छे (माथे चडावे तो मुक्ति थया विना रहे नहीं.)
* वीतराग वचननी असरथी ईन्द्रियसुख नीरस न लाग्यां तो ज्ञानीनां वचनो काने पड्यां ज
नथी–एम समजवुं.
* मोक्षमां आत्माना अनुभवनो जो नाश थतो होय तो ते मोक्ष शा कामनो? (मोक्ष दशामां
दरेक आत्मा पोतपोताना अतीन्द्रिय आत्मसुखनो अनुभव करे छे, दरेक आत्मानुं स्वतंत्र अस्तित्व
छे, कोई एकबीजामां भळी जता नथी.)
* शास्त्रकर्ता कहे छे के अन्य भावो अमे, तमे अने दिवाधिदेव सुद्धाए पूर्वे भाव्या छे अने
तेथी कार्य सर्युं नथी; एटला माटे जिनभाव भाववानी जरूर छे. –जे जिनभाव शांत छे, आत्मानो
धर्म छे अने ते भाव्येथी ज मुक्ति थाय छे.
* ज्ञानीओ जो के वाणीया जेवा हिसाबी (सूक्ष्मपणे शोधन करी तत्त्व स्वीकारनारा) छे तो
पण छेवटे लोक जेवा लोक (एक सारभूत वात पकडी राखनारा) थाय छे, अर्थात् छेवटे गमे तेम
थाय पणएक शांतपणाने चूकता नथी. अने आखी द्वादशांगीनो सार पण ते ज छे.
* पुनर्जन्म छे, जरूर छे, ए माटे हुं अनुभवथी हा कहेवामां अचळ छुं. (श्रीमद् राजचंद्र)
* पूर्वे आ जीव क्यां हतो एवुं भान करनारा जीवो अत्यारे पण छे. (पू. गुरुदेव)
* संतपणुं अतिअति दुर्लभ छे, आव्या पछी संत मळवा दुर्लभ छे. संतपणानी जिज्ञासावाळा
अनेक छे, परंतुं संतपणुं दुर्लभ ते दुर्लभ ज छे.
* जे जीव सत्पुरुषना गुणनो विचार न करे अने पोतानी कल्पनाना आश्रये वर्ते ते जीव
सहजमात्रमां भववृद्धि उत्पन्न करे छे, केम के अमर थवाने माटे झेर पीए छे.
* राग–द्वेष अने अज्ञाननो आत्यंतिक अभाव करी जे सहज शुद्ध आत्मस्वरूपमां स्थित थया
ते स्वरूप अमारुं स्मरण, ध्यान अने पामवा योग्य स्थान छे.
* जेनी प्रत्यक्षदशा ज बोधस्वरूप छे ते महात्पुरुषने धन्य छे.