आसो: २४८९ : ७ :
खर वर्णादिमय नथी पण ज्ञानमय छे. आरीते व्यवहारनये जीवने शरीरवाळो ने रागवाळो कह्यो तेमां
शरीर अने रागनुं पृथक्करण करीने, तेमनाथी जुदा ज्ञानमय जीवने ओळखवो ते परमार्थ छे. आवा
परमार्थस्वरूप जीवनी ओळखाण वगर सम्यग्दर्शन थाय नहि ने सम्यग्दर्शन वगर जन्म–मरणनो
अंत आवे नहि.
अरे, अनादिथी पोताना वास्तविक स्वरूपने जाण्या वगर देहादिमां ज पोतानुं अस्तित्व
मानीने जीव एक पछी एक देह बदलावतो बदलावतो चार गतिमां परिभ्रमण करी रह्यो छे. अहो,
चैतन्यमय महा सत्, एवा स्वतत्त्व तरफ जीवे द्रष्टि पण कदी करी नथी, ने परद्रव्यमां ‘आ मारां, आ
मारा’ एवी द्रष्टि करीने त्यां ज उपयोगने चोंटाडयो छे. अहीं तो्र कहे छे के, देहादितो पुद्गलनी रचना
छे ज, अने जे रागादि परभावो छे ते पण खरेखर शुद्ध चैतन्यनी उपज नथी पण मोहकर्मना जोडाण
तरफनी उपज छे तेथी तेने पण पुद्गलमय कहीने, शुद्ध जीवस्वभावनी द्रष्टि करावी छे.
देह तो जड छे, तेना श्वास वगेरेनी क्रिया चैतन्यना हाथमां नथी; रागादि भावो जो के जीवनी
ज अवस्थामां थाय छे परंतु ते जीवनो मूळ स्वभावभाव नथी, जीवना स्वभावनी सन्मुखताथी ते
रागनी उत्पत्ति थती नथी, ने ते राग साथे जीवना स्वभावनी तन्मयता नथी, माटे खरेखर ते राग
पण अचेतन छे; रागी जीव–एम कहेतां खरेखर जीव रागमय नथी, जीव तो ज्ञानमय छे–एम
ओळखाण करे, तो तेणे जीवतां ज देहने जुदो जाणी लीधो छे तेथी मरण समये तेने समाधिमरण थाय
छे.
जुओ, आ समाधिमरण करीने भवनो अंत करवानी रीत! जेणे देहथी भिन्न, अने
असमाधिना भावोथी पण भिन्न एवा जीवने जाण्यो होय तेने ज जीवस्वभावना आश्रये समाधि
थाय. भेदज्ञान वगर कदी समाधि थाय नहि. ज्ञानी–धर्मात्माने देहथी भिन्न चैतन्यना वेदनमां सदाय
समाधिमाव ज वर्ते छे.
त्रिकाळी टकता चैतन्यतत्त्व उपर जेनी द्रष्टि गई तेने देहादिना क्षणिक संयोगनी द्रष्टि न रही,
एटले देह छूटतां मारो नाश थशे. एवी असमाधि तेने थती नथी. अज्ञानी भले “शुद्धोहं–
निर्विकल्पोहं” एम गोखतां गोखतां देह छोडे पण तेनी द्रष्टिमां तो देहनी ने रागनी ज पक्कड वर्ते छे,
–निर्विकल्पता छे ज नहि; विकल्पथी जुदुं जीवतत्त्व जेणे जाण्युं ज नथी तेने निर्विकल्पता केवी? ज्ञानी
तो अंतमुर्ख थईने शुद्ध ज्ञानमयतत्त्वने वेदे छे, ते वेदनमां विकल्पनोय अभाव छे तेथी तेने
‘निर्विकल्पोह’ एवुं साक्षात् परिणमन थया करे छे.
आत्मा चैतन्यमय छे, चैतन्यमांथी चैतन्यभावनी ज उत्पत्ति थाय, चैतन्यभावनी ज उत्पत्ति
थाय, –चैतन्यमांथी रागनी उत्पत्ति न थाय; माटे चैतन्यभावथी भिन्न जे कोई भावो होय ते खरेखर
चेतनना नथी, अने चेतनना नथी माटे तेने जडना ज कहया. जुओ, आवा चैतन्यस्वभावनी श्रद्ध–
ज्ञान–अनुभूति करवी ते मोक्षार्थीए नियमथी कर्तव्य छे. शुद्ध चैतन्यमय भावोने ज जीव कह्यो, अने
रागादिने जीव न कह्यो, एटले खरेखर परमार्थ जीवने ज जीव कह्यो, ने व्यवहार जीवने जीव न कह्यो.
ज्ञानीओ स्वसंवेदनथी जीवने चैतन्यस्वभावपणे ज अनुभवे छे, रागपणे–के भेदपणे अनुभवता
नथी. मोह अने जोगथी उत्पन्न थयेला जे गुणस्थानभेदो ते एकरूप जीवस्वभावमां नथी, जीवस्वभाव
तो चैतन्यस्वभावथी ज सदाय व्याप्त छे, –एम आगमथी पण प्रसिद्ध छे; ज्ञानीओ एकरूप
चैतन्यस्वभावने भेदथी भिन्नपणे सदाय अनुभवे छे. पर्यायमां जे भेद–विकार छे ते चैतन्यस्वभावमां
व्याप्त नथी. आवा चैतन्यस्वभावने भेदज्ञानीओ स्वयं अनुभवे छे. अने आवा आत्माना
अनुभवथी ज अपूर्व भेदज्ञान थाय छे.