Atmadharma magazine - Ank 240
(Year 20 - Vir Nirvana Samvat 2489, A.D. 1963)
(Devanagari transliteration).

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: ८ : आत्मधर्म: २४०
अहो, आ मनुष्यभव पामीने आ ज करवा जेवुं छे. सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप जे सम्यक्
आचरण ते ज मोक्षनुं कारण छे, माटे ते ज कर्तव्य छे, एनाथी विरुद्ध आचरण कर्तव्य नथी. चैतन्यनुं
जेमां प्रकाशन होय एवो चैतन्यभाव ते ज चैतन्यनुं आचरण छे, रागमां चैतन्यनुं प्रकाशन नथी, ते
राग खरेखर चैतन्यनुं आचरण नथी. ज्ञानी पोताना चैतन्यभावने रागथी जुदो ज अनुभवे छे.
अहा, संतोए पोताना अनुभवने आगममां ऊतार्यो छे. अल्पकाळमां केवळज्ञान लेनारा संतोए
केवळी जेवा काम कर्या छे. अंदरनी द्रष्टि अने अनुभवनी तो घणी ज निर्मळता, अने ते उपरांत ए
अनुभवने शास्त्रमां उतरावानी अगाध क्षयोपशम शक्ति! एकदम स्पष्ट वस्तुस्थिति स्वानुभवथी,
युक्तिथी ने आगमथी बतावी दीधी छे.
आचार्यदेव कहे छे के अंदरना स्वसंवेदनमां जे चैतन्यपणे अत्यंत चकचकाट प्रकाशी रह्यो
छे ते ज जीव छे. चैतन्यलक्षणवडे ते जीव रागथी ने देहथी भिन्नपणे अत्यंत स्पष्ट प्रकाशी रहयो
छे. अहो जीवो! तमे तेनुं ज अवलंबन करीने शुद्ध जीवने अनुभवो. रागना अवलंबनवडे के
ईंद्रियोना आलंबन वडे शुद्ध जीव अनुभवमां आवतो नथी, चैतन्यलक्षणना अवलंबन वडे ज
शुद्ध जीव अनुभवमां आवे छे. आम करवाथी ज शुद्ध जीवना यथार्थ स्वरूपनुं ग्रहण थाय छे.
शुद्ध जीवतत्त्वने जाण्या विना भगवान अर्हंतनी भक्ति करे, के नवतत्त्वोना भेदने जाणे
के शास्त्रो भणे तो तेनुं फळ पुण्य अने स्वर्गनो कलेश छे, तेमां आत्मानी शांति मळती नथी.
भगवाननी भक्ति वगेरे भावो समकितीनेय होय, पण तेनी द्रष्टि अने रुचि शुद्ध चैतन्यतत्त्व
उपर छे; भक्तिनो जे राग थयो ते रागमय जीव छे–एम ज्ञानी मानता नथी, पण ते रागथी
भिन्न ज्ञानमय जीव छे–एम ज्ञानी अनुभवे छे. अंदरना वीतरागी चिदानंदस्वभावनो उत्कृष्ट
महिमा न आवे ने वच्चे क्यांय शुभराग वगेरेनो महिमा आवी जाय–तो ते जीव आत्माने
रागमय माननारो छे, रागथी जुदा चैतन्यस्वभावने ते जाणतो नथी. तेने ओळखावे छे के
भाई! आत्मा तो चैतन्यलक्षणमय छे. राग कांई तेनुं लक्षण नथी. चैतन्यलक्षणद्वारा आत्मा
रागथी जुदो लक्षित थाय छे. माटे चैतन्य अने रागने जुदा जाणीने, चैतन्यनुं ज अवलंबन
करो ने रागनुं अवलंबन छोडो.
अहा, आवा स्पष्ट चैतन्यलक्षणवडे आत्माने सर्वे अजीवथी जुदो बताव्यो रागथी पण
जुदो बताव्यो, आम स्पष्ट वहेंचणी करीने शुद्धआत्मा जुदो बताव्यो, तेना विलासने ज्ञानीओ
अनुभवे छे. आवुं स्पष्ट भेदज्ञान समजाववा छतां अज्ञानीओने स्व–परनी एकताबुद्धिरूप तीव्र
मोह केम नाचे छे! जो चैतन्यलक्षण वडे जीवने ओळखे तो एवो मोह रहे नहि. अज्ञानी मोहथी
अन्यथा माने तो पण जीव तो शुद्धज्ञानमय ज छे, ते कांई अन्यथा थतो नथी. माटे हे भव्य
जीवो! तमे मोहने दुर करीने, चैतन्यलक्षणद्वारा शुद्ध जीवस्वरूपनो अनुभव करो.