Atmadharma magazine - Ank 240a
(Year 20 - Vir Nirvana Samvat 2489, A.D. 1963)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 16 of 22

background image
: १४ : आत्मधर्म: २४०A
समर्थ नथी, माटे ते परिणमनमां ईष्ट–अनीष्टपणुं मानीने सुखी–दुःखी थवुं ते निरर्थक छे; परनुं
परिणमन परने आधीन छे, तेमां मने कंई ईष्ट के अनीष्ट नथी; हुं तो ज्ञानस्वभावी छुं. आवी
वस्तुस्वरूपनी भावनाथी दुःख मटे छे, ते प्रत्यक्ष अनुभवगोचर छे. माटे श्रावके दुःखक्षयने अर्थे
सम्यक्त्वनुं ग्रहण करीने मेरु जेवी द्रढताथी तेने निरंतर ध्यानमां ध्याववुं.
गृहस्थपणामां रहेला श्रावकने पण चैतन्यनुं निर्विकल्पध्यान होय छे. अने चैतन्यना ध्यानथी
प्रगटेलुं निर्मळ सम्यक्त्व मेरुसमान अकंप होय छे. गमे तेवी प्रतिक्रूळतामां पण तेनी श्रद्धा डगती नथी; माटे
आचार्यदेवे कह्युं के हे श्रावक! निर्मळ सम्यग्दर्शनने मेरुसमान द्रढपणे धारण करो ने तेने निरंतर ध्यावो.
(गाथा ८७)
सम्यक्त्वरूपे परिणमतो थको जे जीव तेनुं ध्यान करे छे ते सम्यग्द्रष्टिजीव सम्यक्त्वरूप
परिणमन वडे दुष्ट अष्ट कर्मोनो क्षय करे छे. जुओ, आ सम्यक्त्वनुं सामर्थ्य! सम्यग्दर्शन वडे जे शुद्ध
आत्मा प्रतीतमां–अनुभवमां आव्यो तेना अचिंत्य महिमानुं निरंतर ध्यान करवुं अने जेणे
सम्यग्दर्शन प्रगट करवानुं होय तेने पण आ उपायथी ज सम्यग्दर्शन थाय छे. सम्यग्दर्शननुं स्वरूप शुं,
तेनी प्रतीतमां आवेलो शुद्ध आत्मा केवो–तेने ओळखीने तेनुं ध्यान करवाथी सर्व कर्मनो क्षय थई जाय
छे. सम्यग्दर्शन थयुं त्यारथी अनंता कर्मो खरवा मांडया ने गुणश्रेणी निर्जरा शरू थई गई. संसारनुं
मूळ मिथ्यात्व अने मोक्षनुं मूळ सम्यक्त्व. ज्यां सम्यक्त्वनुं परिणमन थयुं त्यां आत्मानुं ज अवलंबन
रह्युं, त्यां कर्म तरफनुं वलण न रह्युं एटले ते निर्जरतुं ज जषय छे, आत्मा ज्यां सम्यक्त्वरूप
परिणम्यो त्यां कर्म तरफनुं परिणमन न रह्युं, एटले कर्मने कोई आधारन रह्यो. आ रीते
सम्यक्त्वपरिणमनथी सर्व कर्म नाश थई जाय छे. आठ कर्मनुं बीज जे मिथ्यात्व, तेनो तो सम्यक्त्व
थतां ज नाश थई गयो छे. ज्यां बीजनो नाश थयो त्यां कर्मनुं विषवृक्ष अल्पकाळमां सुकाई जशे. ज्यां
मिथ्यात्व नष्ट थयुं, अनंतानुबंधी कषायो नष्ट थया त्यां क्रमे क्रमे शुद्धता वधती जाय छे, ने अनुक्रमे
चारित्र तथा शुक्लध्याननो सहकार मळतां सर्वे कर्मो नष्ट थई जाय छे. आवो सम्यग्दर्शननो सहकार
मळतां सर्वे कर्मो नष्ट थई जाय छे. आवो सम्यग्दर्शननो महिमा छे.
पहेलां सम्यग्दर्शननुं वास्तविक स्वरूप लक्षमां लईने, वारंवार चिंतन करीने अंतर्मुख प्रवाहमां
ऊतरतां सम्यग्दर्शन थाय छे, पछी तेना उग्र परिणमनवडे चारित्र अने शुक्लध्यान प्रगट थाय छे.
माटे सम्यग्दर्शन ते सौथी मुख्य प्रथम कर्तव्य छे. पहेलां संसारथी वैराग्य लावी चैतन्यस्वभावनी
विचार धारा ऊपडे ने स्वभावनी सावधानी करीने अंतर्मुख थतां निर्विकल्प आनंदना अनुभवसहित
सम्यग्दर्शन थाय छे; सम्यग्दर्शन थयुं त्यां मोक्षनो दरवाजो खुल्यो.
अहो, अधिक शुं कहीए? जे जे उत्तम पुरुषो पूर्वे सिद्धि पाम्या छे, अत्यारे पामे छे अने
भविष्यमां पामशे ते बधुं आ सम्यक्त्वनुं ज माहात्म्य जाणो. सम्यक्त्व ज सिद्धिनुं मूळ कारण छे. एम
जाणीने मोक्षार्थी जीवोए ते ज पहेलुं कर्तव्य छे. सम्यग्दर्शन वगरनुं ज्ञान के चारित्र ते बधुं पोलपोल
छे, तेमां कांई ज सार नथी. भगवंतो अने संतो कहे छे के मोक्षनुं प्रधान कारण सम्यग्दर्शन छे. अने ते
सम्यग्दर्शननी आराधना गृहस्थाश्रममां पण होय छे. एम न मानवुं के गृहस्थाश्रममां तो शुं धर्म
होय? भाई, ज्ञान–चारित्र वगेरे बधा धर्मोने सफळ करनारुं सम्यग्दर्शन गृहस्थाश्रममां पण होय छे.
ए सम्यग्दर्शन तो धर्मनुं कल्पवृक्ष छे, चिंतामणि छे, कामधेनु छे. छ खंड अने ९६ हजार राणीओना
वैभव वच्चे रहेला चक्रवर्ती पण सम्यग्दर्शननी आराधना करे छे. समकिती जाणे छे के अहो, मारी
ऋद्धि मारा चैतन्यमां छे, जगतनी ऋद्धिमां मारी ऋद्धि नथी; ने मारी ऋद्धिमां जगतनी ऋद्धि नथी.
जगतथी निरपेक्षपणे मारामां ज मारी सर्व रिद्धि भरेली छे.
रिद्धि–सिद्धि–वृद्धि दीसे घटमें प्रगट सदा,
अंतरकी लक्ष्मीसों अजाची लक्षपती है;
दास भगवंतको उदास रहे जगत सो,
सुखीया सदैव एसे जीव समकिति है.