आसो: २४८९ : १७ :
मेळवीने निरूपण करे छे, माटे एवा ज श्रद्धनथी मिथ्यात्व छे. ज्यां व्यवहारनी मुख्यताथी कथन होय
त्यां एम समजवुं के ‘खरेखर ए प्रमाणे नथी पण निमित्तादिनी अपेक्षाए आ उपचार कर्या छे.’
निश्चयनयनुं श्रद्धन शा माटे करवुं?
केमके निश्चयनय स्वद्रव्य–परद्रव्यने, तेना भावोने तेमज कारण कार्य वगेरेने यथावत् निरूपण
करे छे, कोईनो अंश बीजामां भेळवतो नथी, तेथी एवा ज श्रद्धनथी सम्यक्त्व थाय छे. माटे तेनुं
श्रद्धन करवुं. निश्चयनयनी मुख्यतासहित कथनने “सत्यार्थ एम ज छे” एम समजवुं.
श्री टोडरमल्लजीए निश्चय–व्यवहारनुं आ महान लक्षण बांध्युं छे, ते बधा शास्त्रोना अर्थ
उकेलवामां घणुं ज उपयोगी छे.
निश्चयाभासी मिथ्याद्रष्टि जीवो शुं भूल करे छे?
पोतानी पर्यायमां रागद्वेष–अशुद्धनुं प्रत्यक्ष वेदन होवा छतां पर्यायमां पोताने सिद्धसमान कल्पे
छे; परंतु पर्याय अपेक्षाए संसारीजीवो कांई सिद्धसमान नथी. पोतामां अशुद्धता होवा छतां तेने ज
जाणे ने भ्रमथी पोताने सिद्धसमान मानीने प्रवर्ते, तो पछी देव–गुरुनो विनय करवानुं के मोक्षनुं
साधन करवानुं क््यां रह्युं? –मिथ्यात्व ज थयुं. माटे अज्ञानीजीव पर्यायनो विवेक भूलीने, सिद्धसमान
मानी प्रवर्ते छे ते निश्चयाभासी मिथ्याद्रष्टि जीवनी भ्रमणा छे.
शास्त्रोमां पण आत्माने सिद्धसमान तो कह्यो ज छे. “सिद्धसमान सदा पद मेरो”–एम तो
शास्त्रोमां आत्माने सिद्धसमान कह्यो छे ते तो द्रव्यद्रष्टिथी कह्यां छे, कांई पर्याय अपेक्षाए बधा
जीवोने सिद्धसमान नथी कह्या. जेम मनुष्य तरीने राजा के रंक बधा सरखा होवा छतां, अवस्थामां जे
रंक छे ते कांई राजा नथी. तेम सिद्ध के संसारी बधा जीवो सरखा नथी, जेने पर्यायमां अशुद्धपणुं छे
तेने कांई सिद्धपणुं प्रगट नथी. सिद्धपर्याय अने संसारपर्याय बंने सरखी छे–एम मानवुं ते भ्रम छे.
बधा जीवो कई रीते सिद्धसमान छे? अने कई रीते समान नथी?
जीवना द्रव्यस्वभावनी अपेक्षाए बधा जीवो सिद्धसमान छे, पण पर्याय अपेक्षाए बधाय
जीवो समान नथी. पोते संसार होवा छतां पर्यायमां पण पोताने सिद्धसमान मानवो–ते भ्रम छे, जो
पर्यायथी पण पोते सिद्धसमान थई गयो होय तो पछी मोक्षना मार्गमां प्रवर्तवानुं क््यां रह्युं? जे जीव
पर्यायथी पण पोताने सिद्धसमान ज माने ते मोक्षनो उद्यम केम करे? एवा निश्चयाभासी जीवो शुष्क
अने प्रमादी थई जाय छे.
जीवनी अवस्थामां केवळज्ञाननी शक्ति प्रगट छे
ना; जीवना स्वभावनां शक्तिरूपे केवळज्ञान छे, पण अवस्थामां अत्यारे ते प्रगट नथी.
अवस्थामां तो सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप साधन करे त्यारे ज केवळज्ञान प्रगटे छे. पर्यायमां
केवळज्ञान प्रगट होय ने केवळज्ञानावरण कर्म तेने आवरे–एम बने नहि. केवळज्ञानावरणकर्मनो क्षय
करीने केवळज्ञान थाय छे. जो अत्यारे केवळज्ञान प्रगट होय तो तो लोकालोकने केम न जाणे? जे
केवळज्ञानने वज्रपटल पण रोकी न शके ते केवळज्ञानने लोकालोक जाणवामां कर्मरजकण केम आडां
आवे? माटे नीचलीदशामां केवळज्ञान प्रगटरूप नथी पण स्वभावनी शक्तिरूप छे. माटे ‘नीचली
दशामां केवळज्ञान प्रगटरूप छे पण कर्म तेने आवरे छे’ –एम मानवुं तेभ्रम छे. जेम नीचली दशामां
अशुद्धता होवा छतां पोताने पर्यायथी सिद्ध मानवे ते भ्रम छे, तेमां द्रव्यनी पर्यायसंबंधी भूल छे, तेम
अज्ञानदशामां पण पोताने केवळज्ञाननो सद्भाव मानवो–ते गुणनी पर्यायसंबंधी भूल छे.