: १८ : आत्मधर्म: २४०A
हा, एटलुं खरुं के उपयोगने अंतर्मुख करीने स्वभावसामर्थ्यथी पोताने सिद्धसमान प्रतीतमां लेवो ते
बराबर छे, अने एवी प्रतीत थतां पोतामां केवळज्ञान प्रगटावानुं सामर्थ्य छे–ते पण अनुभवमां
आवे छे. पण एवी प्रतीत होवा छतां साधक धर्मात्मा पर्यायमां तो पोताने पामर समजे छे, अरे?
क्यां केवळज्ञाननी अगाध अचिंत्य ताकात, ने क्यां मारी अल्पता!!
केवळज्ञान तो प्रगट छे पण कर्मना आवरणने लीधे ढंकायेलुं छे–एम मानवामां शो दोष छे?
एम मानवामां निमित्ताधीन द्रष्टि छे. उपादानना अपराधथी ज केवळज्ञान अटक्युं छे तेने
बदले कर्मना निमित्तने लीधे अटक्युं छे–एम मान्युं ने उपादाननो जे अपराध छे तेने न जाण्यो तेनी
द्रष्टि ऊंधी छे. केवळज्ञान तो प्रगट छे पण कर्मे तेनी शक्तिने रोकी छे, एटले जीवनो तो कांई अपराध
नथी जे कर्मनो ज अपराध छे–एम मानवुं ते भ्रम छे. एने द्रव्य–गुण–पर्यायनी खबर नथी.
केवळज्ञाननी एवी अतीन्द्रिय ताकात छे के गमे तेवा आवरण आडां होय तो पण पदार्थने प्रत्यक्ष
जाणे. जे केवळज्ञानने वज्रपटल जेवा जाडां पड पण रोकी न शके तेने कर्मनां पातळां पड केम रोकी
शके? माटे, जेम वादळांनी पाछळ सूर्य प्रगट छे तेम कांई कर्मनी नीचे केवळज्ञान नथी.
केवळज्ञान ते क्यो भाव छे?
केवळज्ञान ते क्षायिकभाव छे. सम्यग्दर्शनादि महा प्रयत्न वडे घाति कर्मोनो क्षय थतां केवळज्ञान
प्रगटे छे, तेथी ते क्षयिकभावे छे; जो पर्यायमां केवळज्ञान पहेलेथी (अनादिनुं) प्रगट होय तो तो तेने
पारिणामिकभावे कहेवुं जोईए. ज्ञानगुण पारिणामिकभावे छे पण केवळज्ञानपर्याय तो क्षायिकभावे छे,
ते सादि अनंत छे.
हुं मारा स्वभावमां अंतर्मुख एकाग्र थाउं तो केवळज्ञान थाय–एम ज्ञानी जाणे छे, तेने बदले
अज्ञानी एम माने छे के कर्मे केवळज्ञान रोकयुं छे ने कर्म खसे तो केवळज्ञान थाय, मारी पर्यायमां तो
कांई अपराध छे नहि–ए तेनो मोटो भ्रम छे. पोताना द्रव्य–गुण–पर्यायने जेम छे तेम बराबर जाणे.
गुणने गुण जाणे, दोषने दोष जाणे, तो स्वभाव साधनवडे गुण प्रगट करीने दोषने टाळवानो उद्यम
करे पण जे पोतानी पर्यायना दोषने जाणे ज नहि–ते तेने टाळवानो उद्यम क्यांथी करे? अने
स्वभावना गुणने जाणे नहि–तो ते गुण क्यांथी प्रगट करे? पोताना गुणने बहारमां शोधवा जाय तो
तो मिथ्यात्व ज रहे.
आत्मानी पर्यायमां केवळज्ञान प्रगटे छे ने
ना; आत्मानी पर्यायमां केवळज्ञान प्रगटे छे ने केवळज्ञानावरणे तेने आच्छादन कर्युं छे. एम
नथी; पण आत्मानी शक्तिमां जे केवळज्ञान छे ते पर्यायमां प्रगट नथी, ते केवळज्ञानने प्रगट थवा न
देवामां निमित्तरूप केवळज्ञानावरण कर्म छे. जेम पाणीनो शीतळस्वभाव कहेवाय छे पण ज्यारे ते
अग्निना निमित्ते ऊनुं थयुं छे त्यारे कांई तेनी अवस्थामां शीतळता नथी, तेम केवळज्ञान ते जीवनो
स्वभाव छे. एम स्वभाव सामर्थ्य अपेक्षाए कहेवामां आवे छे. पणकांई अल्पज्ञता वखते केवळज्ञान
प्रगट नथी. जो केवळज्ञान प्रगट होय तो तो केवळज्ञानावरण कर्म रहे ज नहि.
अल्पज्ञता होवा छतां पोताने केवळज्ञानी माने तो शुं वांधो?
जेम पाणी उष्ण होवा छतां तेने ठंडुं मानीने कोई पीवा मांडे तो शुं थाय? –तेने दाझवुं ज थाय.
तेम पोतानी पर्यायमां अशुद्धता होवा छतां केवळज्ञानी मानीने अनुभववा जाय तो भ्रमथी पोते दुःखी
ज थाय–ते जीवे केवळज्ञाननुं खरुं स्वरूप ओळख्युं