Atmadharma magazine - Ank 241
(Year 21 - Vir Nirvana Samvat 2490, A.D. 1964)
(Devanagari transliteration).

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ः १०ः आत्मधर्मः २४१
अतीन्द्रिय आत्मा कई रीते ग्रहाय?
श्री प्रवचनसारनी १७२मी गाथामां २० बोल द्वारा
अलिंगग्राह्य आत्मानुं अद्भुत विवेचन कर्युं छे. तेना उपर पू. गुरुदेवे
चोथा काळना विरल वैभव जेवा जे प्रवचनो कर्या तेमांथी दोहन करीने
अहीं रजु करतां हर्ष थाय छे. जो के आ संक्षिप्त दोहनमां बधोय सार
तो न ज आवी शके, छतां तेनो थोडोक नमुनो पण जिज्ञासुओने
आनंदित करशे.
प्रवचनसारमां ज्ञेयतत्त्वोनुं वर्णन करतां आचार्यदेवे एम बताव्युं के चैतन्यमूर्ति
आत्मा पुद्गलादि परद्रव्योथी तद्न जुदो छे, अने तेने ते पुद्गलमय शरीरादिनुं
कर्तापणुं होवामां सर्वथा विरोध छे. ए प्रमाणे शरीरादिथी अत्यंत भिन्नपणुं कह्युं, त्यारे
जिज्ञासु शिष्यने प्रश्न ऊठयो के प्रभो! तो पछी जीवनुं पोतानुं असाधारण लक्षण शुं
छे–के जे साधनवडे पोताना आत्माने सर्व परद्रव्योथी जुदो अनुभवी शकाय?
खरेखरा जिज्ञासु जीवनो आ प्रश्न छे. तेना उत्तरमां आचार्यदेवे आ १७२मी
गाथामां अलौकिक रीते आत्मानुं स्वरूप समजाव्युं छे. आचार्यदेव कहे छे के हे शिष्य!
आत्माने तुं चेतनागुणमय अलिंगग्रहण जाण. ते ‘अलिंगग्रहण’ना २० अर्थो करीने
अमृतचंद्राचार्यदेवे अद्भुत रहस्यो खोल्यां छे. तेना पहेला बोलमां कहे छे के–आत्मा
अतीन्द्रियज्ञानस्वरूप छे; इन्द्रियो तो परद्रव्य छे, तेना वडे जाणवानुं काम आत्मा करतो
नथी. आत्मा पोते उपयोगस्वरूप छे. अतीन्द्रियज्ञानथी जोवानो तेनो स्वभाव छे.
जाणनार आत्मा शुं परना स्वभावथी जाणे? ना. एकलुं अतीन्द्रियज्ञान एटले के
एकलुं पर तरफ झूकेलुं ज्ञान तेने आचार्यदेव ‘आत्मा’ कहेता नथी.