पण ते बहारमां ज भमे, ते उपयोग अंतरमां आवे नहि; आत्माने छोडीने एकला
बहारमां भमता उपयोगने शास्त्रमां दुर्बुद्धि कहेल छे.
तेवो नथी. इन्द्रियोथी तो आत्मा अत्यंत विभक्त छे, तो ते इन्द्रियो आत्मामां
प्रवेशवानुं साधन केम होय? स्वज्ञेय आत्मा तो इन्द्रियातीत छे. इन्द्रियो तेनुं साधन
पण नथी. इन्द्रियो के इन्द्रियो तरफना वलणवाळो राग ते कांई आत्मामां प्रवेशवानो
मार्ग नथी, छतां तेने जे मार्ग (के साधन) माने छे ते जडने अने रागने ज आत्मा
माने छे, जडथी ने रागथी जुदा आत्माने ते जाणतो नथी. इन्द्रियोथी ज्ञान थवानुं जे
माने तेने इन्द्रियोनी प्रीति–मैत्री छूटे नहीं, ने अतीन्द्रिय आत्मानी प्रीति–मैत्री–रुचि
तेने थाय नहीं.
थाय त्यारे आत्मा जणाय, ने त्यारे सम्यग्दर्शन थाय. अहा, संतो जंगलमां बेठाबेठा
खाण खोदता हता,–शेनी?–के चैतन्यना आनंदनी.
वांच्या ने घणुं भण्या माटे अमे धर्ममां बीजा करतां कांईक आगळ वध्या, तो
आचार्यदेव कहे छे के भाई, तारा भणतर बधा बहारना छे, स्वनुं ज्ञान तारा
भणतरमां आव्युं नथी. धर्मना राह तो अंदर चैतन्यमां छे. अंतर्मुख थईने
चिदानंदतत्त्वने जाणनार–अनुभवनार धर्मात्मा ज धर्ममां आगळ वध्या छे. तेने माटे
एवी कोई टेक के नियम नथी के आटलुं भण्यो होय तो ज धर्मात्मा कहेवाय. जेने
चैतन्यनो अनुभव नथी तेने बीजी गमे तेटली धारणा होय तोपण ते संसारना मार्गे
ज छे, धर्मना मार्गे नथी. छतां ते एम माने के हुं धर्ममां बीजा करतां आगळ वध्यो छुं–
तो ए जाणपणानुं अभिमान छे, ते इन्द्रियज्ञानमां अटकी जाय छे. भाई! चैतन्यना
मार्ग तो न्यारा छे.
तो बधा जड चिह्नो छे, ते कांई चैतन्यना चिह्न नथी. आ ज्ञानी छे, आ मुनि छे–
इत्यादि प्रकारे खरी ओळखाण थाय खरी, पण ते इन्द्रियचिह्नवडे न थाय,
स्वसंवेदनना लक्षणथी ज थाय.