कारतकः २४९०ः २१ः
केम प्रवर्ते? चारित्रदशा रहित होय तो पण सम्यग्द्रष्टि मोक्षमार्गमां ज छे, केमके तेने
चारित्रनी भावना छे ने रागनी भावना नथी, चैतन्यने ध्येय बनावीने रागथी
भिन्नतानुं भान थयुं छे. आवा भान वगर रागथी लाभ माने ने प्ररूपे ते तो
उन्मार्गमां छे, तेनो ज्ञाननो उघाड पण बधोय निरर्थक छे, भगवानना मार्गने तेणे
जाण्यो नथी, भगवान कई रीते मोक्ष पाम्या तेनी तेने खबर नथी. समकितीने
अस्थिरताने लीधे बाह्य विषयो संपूर्ण न छूटे तो पण तेनुं ज्ञान बगडतुं नथी, द्रष्टिना
विषयमां शुद्ध चैतन्यस्वभावने पकडयो छे ते कदी छूटतो नथी, ते स्व–ध्येयना आश्रये
ते सम्यक्मार्गमां वर्ते छे, मोक्षना माणेकस्तंभ तेना आत्मामां रोपाई गया छे.
पूर्णतारूप परिनिर्वाण मंगलरूप छे. ने
तेनी शरूआतरूप सम्यक्त्व पण मंगळरूप छे.
ए बंनेनी वात आजे मांगळिकमां आवी छे; आ रीते दिपावलीनुं मांगळिक कर्युं.
उपकार
अंतरस्वभावनी सन्मुखता करावे ने परथी विमुखता–उपेक्षा करावे,
एवो हितोपदेश जे संतोए आप्यो ते संतोना उपकारने मुमुक्षु–सत्पुरुषो
भूलता नथी.
“हे जीव! स्वभाव तरफ जवाथी ज तने शांति थशे, बहारना लक्षे
शांति नहि थाय; परद्रव्य तने शांतिनुं दातार नथी, स्वद्रव्य ज तने शांतिनुं
दातार छे....माटे परथी परांग्मुख थईने स्वमां अंतर्मुख था..........”
अहा! आवो उपदेश झीलीने जे अंतर्मुख थयो. ते मुमुक्षु ते उपदेशना
देनारा संतोना उपकारने भूलतो नथी.