Atmadharma magazine - Ank 241
(Year 21 - Vir Nirvana Samvat 2490, A.D. 1964)
(Devanagari transliteration).

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ः २२ः आत्मधर्मः २४१
ज्ञानीनी अद्भुत दशा
*
समकिती–धर्मात्मा जाणे छे के अमारा चैतन्यना अतीन्द्रिय स्वाद
पासे आखा जगतनो वैभव तुच्छ छे....चैतन्यनो रस अत्यंत
मधुर....अत्यंत शां...त...अत्यंत निर्विकार...एना संवेदनथी एवी
तृप्ति थाय के जगत आखानो रस ऊडी जाय. साधकहृदयना
गंभीरभावो ओळखवानुं साधारण जीवोने मुश्केल पडे तेवुं छे.
*
अज्ञानथी ज विकारनुं कर्तापणुं छे, ने ज्ञानथी ते कर्तापणानो नाश थाय छे–
आम जे जीव जाणे छे ते सकल परभावनुं कर्तृत्व छोडीने ज्ञानमय थाय छे. निश्चयने
जाणनारा ज्ञानीओए एम कह्युं छे के आत्मा अज्ञानथी ज विभावनो कर्ता थाय छे.
ज्यां भिन्न चैतन्यस्वभावनुं भान थयुं त्यां पोताना शुद्ध चैतन्य सिवाय बीजे क्यांय
आत्मविकल्प थतो नथी. एटले ते ज्ञानी समस्त परभावने पोताना स्वभावथी भिन्न
जाणतो थको तेनुं कर्तृत्व छोडी दे छे.
जुओ, आ ज्ञानीनुं कार्य! ज्ञानी थयो ते आत्मा पोताना चैतन्यना भिन्नस्वादने
जाणे छे. ज्यां चैतन्यना अत्यंत मधुर शांतरसनो स्वाद जाण्यो त्यां कडवा स्वादवाळा
कषायोमां आत्मबुद्धि केम थाय? रागादि भावो मारा स्वभावमांथी उत्पन्न थयेला छे–
एम ज्ञानीने जरा पण भासतुं नथी. शुद्धज्ञानमय स्वभावना आधारे तेने निर्मळ
ज्ञानभावोनी ज उत्पत्ति थाय छे अने तेनो ज ते कर्ता थाय छे विकल्पनी उत्पत्ति ज ज्यां
मारा ज्ञानमां नथी तो पछी ते विकल्प वडे ज्ञाननी पुष्टि थाय ए वात क्यां रही? आथी
ज्ञानथी भिन्न समस्त विकल्पोनुं कर्तृत्व छूटी गयुं छे.
आ आत्मा अनादिथी अज्ञानी वर्ते छे, तेने पोताना स्वभावना स्वादनुं अने
विकारना स्वादनुं भेदज्ञान नथी एटले बन्नेने एकमेकपणे अनुभवे छे; देहथी
भिन्नतानी वात तो स्थूळमां गई, अहीं तो अंदरना अरूपी विकल्पोथी पण चैतन्यनी
भिन्नता बताववी छे. अज्ञानीने भेदज्ञाननी शक्ति बीडाई गई छे, भेदज्ञान करवानी
शक्ति तो दरेक आत्मामां