Atmadharma magazine - Ank 241
(Year 21 - Vir Nirvana Samvat 2490, A.D. 1964)
(Devanagari transliteration).

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कारतकः २४९०ः २३ः
छे पण अज्ञानी ते शक्ति प्रगट करतो नथी, तेने ते शक्ति अनादिथी बीडाई गयेली छे.
आवा अज्ञानने लीधे ज ते पोताने अने परने एकमेक माने छे, ज्ञानने अने रागने
एकमेक अनुभवे छे. ‘हुं चैतन्य छुं’–एवो स्वानुभव करवाने बदले ‘हुं क्रोध छुं, हुं
राग छुं’ एम ते अनुभवे छे. अहो, दिव्यध्वनि चैतन्यना एकत्व स्वभावनो ढंढेरो
वगाडे छे. गणधरो संतो अने चारे अनुयोगना शास्त्रो भेदज्ञाननो ढंढेरो पीटीने कहे छे
के, चैतन्यस्वभाव तो अनादि अनंत, अकृत्रिम, निर्मळ, विज्ञानघन छे, ने
रागादिभावो तो क्षणिक, नवा, पराश्रये उत्पन्न थयेला मलिनभावो छे, तेमने एकता
केम होय? न ज होय. पण अज्ञानी आवा वस्तुस्वभावथी भ्रष्ट थईने वारंवार अनेक
विकल्परूपे तद्रूप परिणमतो थको तेनो कर्ता प्रतिभासे छे.
अहीं तो ते कर्तापणुं छूटवानी वात समजाववी छे. “रागादिनुं कर्तापणुं
अज्ञानथी ज छे”–एम जे जीव जाणे छे ते जीव ते रागादिनां कर्तृत्वने अत्यंतपणे
छोडे छे. मारा चैतन्यस्वभावमां रागनुं कर्तृत्व छे ज नहि. रागनी खाण मारा
चैतन्यमां नथी. मारी चैतन्यखाणमां तो निर्विकल्प अनाकुळ शांतरस भर्यो छे.
शांतरसनो स्वाद ते ज मारो स्वाद छे, जे आकुळता छे ते मारो स्वाद नथी, ते तो
रागनो स्वाद छे–एम बन्नेना स्वादने अत्यंत भिन्न जाणतो थको ज्ञानी, चैतन्यने
अने रागने एकस्वादपणे नथी अनुभवतो, पण चैतन्यना स्वादने रागथी जुदो ज
अनुभवे छे. चैतन्यना आनंदना निधानने पहेलां अज्ञानथी ताळां दीधा हता ते
ताळांने भेदज्ञानरूपी चावी वडे खोली नाख्या, चैतन्यना आनंदनिधानने खुल्ला
करीने तेनुं स्वसंवेदन कर्युं. ज्यां पोताना निजरसने जाण्यो त्यां विकारनो रस छूटी
गयो, तेनुं कर्तृत्व छूटी गयुं. पहेलां निरंतर विकारनो स्वाद लेतो तेने बदले हवे
निरंतर स्वभावना आनंदनो स्वाद ले छे.
जुओ, आ चोथा गुणस्थानवाळा समकिती धर्मात्मानी दशा! जे साधक थयो, जे
मोक्षना पंथे चडयो, अंतरमां जेने चैतन्यना भेटा थया, एवा धर्मात्माज्ञानी मुनि
श्रुतज्ञानथी चैतन्यना अतीन्द्रिय आनंदनुं स्वसंवेदन करे छे. अहा, जगतना रसथी
जुदी जातनो चैतन्यनो रस छे. इन्द्रपदना वैभवमां पण ते रस नथी. समकिती इन्द्र
जाणे छे के अमारा चैतन्यना अतीन्द्रिय स्वाद पासे आ इन्द्रपद तो शुं! आखा
जगतनो वैभव पण तूच्छ छे. चैतन्यनो रस अत्यंत मधुर अत्यंत शां....त! अत्यंत
निर्विकार....जेना संवेदनथी एवी तृप्ति थाय के आखा जगतनो रस ऊडी जाय.
शां...त...शांत चैतन्यनुं मधुरुं वेदन थयुं त्यां आकुळताजनक एवा कषायोनुं कर्तृत्व केम
रहे? कषायोथी अत्यंत भिन्नतानुं भान थयुं. जुओ, स्वसन्मुख थईने आवा स्वादनुं
स्वसंवेदन करवानी मति–श्रुतज्ञाननी ताकात छे. मति–श्रुतने स्वसन्मुख करीने
धर्मात्मा आवा चैतन्यस्वादनुं प्रत्यक्ष स्वसंवेदन करे छे.