Atmadharma magazine - Ank 241
(Year 21 - Vir Nirvana Samvat 2490, A.D. 1964)
(Devanagari transliteration).

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३२ः आत्मधर्मः २४१
नहीं परंतु यात्रानो संकल्प करीने घरेथी नीकळ्‌या त्यारथी ज यात्रानी शरूआत थइ
गइ; ने पर्वत पर पहोंच्या त्यारे तो ए संकल्पनुं फळ आव्युं,–जेम यथार्थ निर्णयनुं फळ
अनुभव आवे छे तेम.
अहा! सिद्धिधामने भेटवानी कहानगुरुदेवनी भावना आजे पूरी थाय छे.
गुरुदेव साथे सम्मेदशिखरजी शाश्वत सिद्धिधामनी यात्रा करवानी हजारो यात्रिकोनी
भावना आजे उल्लासपूर्वक पूरी थाय छे. मंगळ तीर्थयात्रानो आ पवित्र प्रसंग
जीवनमां सिद्धिपंथ प्रत्येनी पुनित प्रेरणा सदाय आप्या करो.
सेंकडो–हजारो जयजयकार सहित ने पंचपरमेष्ठीना नमोक्कारमंत्रना
स्मरणसहित आनंदभरेला वातावरणमां गुरुदेवे सिद्धिधामनी यात्रानो मंगल प्रारंभ
कर्यो. सिद्धिधाम प्रत्ये पहेलुं पगलुं मुकतां ज अनेरो आह्लाद जागे छे....रोमेरोममां
कोइ नवो ज झणझणाट व्यापी जाय छे. नूतन समकिती जेम चैतन्यने भेटे ने
आनंदित थाय तेम गुरुदेव ए तीर्थने भेटया ने आनंदित थया. गुरुदेवना पगले
पगले चाली रहेला यात्रिकोने पण आजे अनेरो हर्ष हतो. पहाड चडवाना प्रारंभे
जाणे पराक्रमनो कोइ नवो ज युग प्रारंभायो हतो. सिद्धो अने साधकोनुं स्मरण थतुं
हतुं, पंच परमेष्ठी प्रत्ये प्रणमन थतुं हतुं, रत्नत्रयनी भावनाओ जागती हती. आवी
भावनासहित गुरुदेव साथे सिद्धोने हृदयमां स्थापीने सिद्धिधाम प्रत्ये पगलां मांडया.
अहो सिद्धभगवंतो! मारा गुरुदेव साथे तमारा पवित्रधाम प्रत्ये में प्रस्थान कर्युं.
पगले पगले प्रभुजीनुं स्मरण थाय छे, ने हृदयमां एवी झणझणाटी जागे छे....जाणे के
सिद्धभगवानने देखीने प्रदेशे प्रदेशेथी कर्मो खरी रह्या होय! जीवननो आ पवित्र
प्रसंग मुमुक्षुहैयामां कोतराइ गयो छे.
जेम मोक्षमार्गना पथिकने पर्याये पर्याये नवीन आनंदनी स्फुरणा थाय छे तेम
सिद्धिधामना यात्रिकोने पगले पगले नवीन हर्षनी उर्मिओ जागे छे. जेम जेम शाश्वत
तीर्थनुं आरोहण करीए छीए तेम तेम गुरुदेव बधाना हृदयमां आनंद करावे छे. जराक
चालतां वनराजी शरू थाय छे. आखोय सम्मेदशिखर पर्वत अतिशय गीच मनोहर
वनराजीथी छवायेलो छे. अहा, मुनिवरोए जेनी वच्चे बेसीने आत्मसाधना करी एवी
आ वनराजी बहु ज शोभी रही छे. सुंदर वनराजीनां आ अद्भुत द्रश्यो! सुंदर झाड–
पान ने पुष्पोथी खीलेलुं ए वन–जाणे मुनिदर्शननी प्रसन्नता हजीये अनुभवी रह्युं होय
एवुं प्रफुल्ल लागे छे. ए प्रफुल्लित वनराजी वच्चेथी पसार थती वखते हृदयमां वनवासी
दिगंबर महामुनिओ, स्वरूपमां झूलता ए संतो, ज्यारे अहीं विचरता हता ए द्रश्य खडुं
थाय छे, ने मुमुक्षुहृदयमां ए दशानी भावना जागे छे. जेम सुप्रभातमां कमळ खीले तेम
आ वनमां ज्ञानीओनां हृदय–