‘आत्मधर्मना वधुने वधु विकास अने प्रचारने माटे अमे प्रयत्नशील छीए...ने तेना ज
एक पगलां तरीके आ अंकथी ‘आत्मधर्म’नी साईझमां फेरफार थई रह्यो छे. आ सुंदर
कद सर्वे पाठकोने जरूर गमशे. ‘आत्मधर्म’मां बीजा अनेक उपयोगी विभागो पण शरू
करवानी भावना छे–जे माटे प्रयत्न चाली रह्यो छे.
रह्या छे तेने झीलीने अंतरपरिणमन करवा–योग्य आत्मार्थीता पोषाय,
साधर्मीओमां परस्पर वात्सल्य विस्तरे, अने आत्मार्थमां अनन्य सहायक एवा
देव–गुरु–धर्म प्रत्ये परम उल्लास–भक्ति–अर्पणता जागे–एवा लक्षपूर्वक आ
‘आत्मधर्म’नुं संचालन थाय छे. आ नवा वर्षना प्रारंभमां समस्त वाचकवर्ग
तरफथी गुरुदेवना चरणोमां नमस्कार करीए छीए. आ जगतमां संतचरणनो
केटलो महिमा छे ते संबंधमां ‘मंगल तीर्थयात्रा’ना छेल्ला थोडाक वाक्योनुं
स्मरण थतां अहीं तेनुं उद्धरण कर्युं छेः “ सम्यग्दर्शनादिरूप परिणमीने
भवसागरथी तरी रहेला जीवो ते स्वयं ‘तीर्थ’ छे, ने एवा मंगल–तीर्थस्वरूप
संतना चरणोमां वसतो मुमुक्षु पोतानुं आखुंय जीवन ज यात्रामय समजे छे.
अहा, जे सन्तोनी चरणरजे पहाडोने पूज्य बनाव्या ते सन्तोना साक्षात्
चरणनी शी वात! संतोमां बधुंय समाय छे, एना हृदयमां भगवान छे, एनी
वाणीमां शास्त्र छे, एनी कृपाद्रष्टिमां कल्याण छे, ने ज्यां एनां चरण छे त्यां
तीर्थ छे. आथी आराधक जीवोना दर्शनने पण तीर्थयात्रा ज गणवामां आवी छे.
आवा अपार महिमावंत तीर्थस्वरूप पू. गुरुदेव जेवा संतचरणोनी शीतल
छायामां निशदिन रहीने आत्महित साधीए–एज भावना.”