Atmadharma magazine - Ank 242-243
(Year 21 - Vir Nirvana Samvat 2490, A.D. 1964)
(Devanagari transliteration).

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मागशर–पोषः २४९०ः ११ः
–आवा निजपदने ओळखीने हवे अनादिनी अणसमजणने छोडो. अज्ञानना
फळमां निगोदनुं मोटुं स्थान छे, तत्त्वज्ञाननी विराधनानुं फळ महा दुःख निगोद छे;
ने तत्त्वज्ञाननी आराधनानुं फळ महान सिद्धपद छे. एक क्षण पण तत्त्वज्ञाननी
आराधना करे तो अल्पकाळमां अनंतसुखथी भरेलुं सिद्धपद पामे. भाइ, आवुं
सिद्धपद तारा आत्मामां भर्युं छे, ते ज तारुं खरुं निजपद छे; परभावोनी रमतो ते
तारी रमत नथी. जेम माछला वगेरे जीवोनी हिंसा थाय एवी रमत आर्य–सज्जन
माणसनी न होय, तेम जेमां चैतन्यनी शांति हणाय एवा परभावोनी रमतमां
राचवुं ते हे भाई! तारुं काम नथी. ए परभावमां राचवानुं तुं छोड....भाई!
एकवार तो तुं तारुं स्वरूप समज....ए परभावोथी पाछो फर ने आ तरफ
आव....आ तरफ आव! तारी परिणतिना वेगने परभाव तरफ वळ्‌यो छे त्यांथी
पाछो वाळीने अंतरना स्वभाव तरफ वाळ.
अहा, जुओ तो खरा! संत मुनिओए पडकार करीने जीवोने थंभावी दीधा छेः
अरे जीवो! थंभी जाव....थंभी जाव! ए परभावोमां स्वप्नेय तमारी शांति नथी.
शांतिनुं धाम चैतन्यमां छे. हरणीयां मृगजळ तरफ दोडे तेम तमे बाह्यविषयोरूपी
मृगजळ तरफ दोडी रह्या छो, ए रागादि परभावो पण मृगजळ जेवा छे, तेमां कयांय
शांतिनुं झरणुं नथी. शांतिनुं झरणुं चैतन्यधाममां छे, तेमां आवो....तेमां वळो. अरे,
आवा चैतन्यनी ओळखाण पण दुर्लभ छे, तेमां लीनतारूप संयमदशा तो बहु ज दुर्लभ
छे. संयमदशा ने मुनिदशा जेणे प्रगटी तेणे तो परमात्माना घरमां प्रवेश कर्यो.
सम्यग्दर्शन थयुं त्यां पोताना अंतरमां परमात्मानुं घर देख्युं. तेणे निजघरमां वास
कर्यो. आवुं निजघर बतावीने आचार्यदेव कहे छे के हे भाई! आ शुद्ध चैतन्यधातु छे ते
ज तारुं पद छे, ते ज तारुं वास्तु छे, ते ज तारुं रहेठाण छे, तेमां निवास कर. राग तारुं
पद नथी, राग तारुं रहेठाण नथी. जुओ, आ आचार्यदेव स्वघरमां अपूर्व वास्तु करावे
छे. पुण्यमां–रागमां जे वास्तु माने ते तो घोर संसारमां हींडे छे, संसारमां भ्रमण करे
छे. आचार्यदेव प्रवचनसार गाथा. ७७ मां कहे छे के पुण्य अने पापमां कांई फेर नथी–
एम जे जीव नथी मानतो ने मोहथी पुण्यमां सुख माने छे, पुण्यमां धर्म माने छे, ते
जीव मोहने लीधे घोर–अपार संसारमां परिभ्रमण करे छे. तेने अहीं जगाडीने
आचार्यदेव कहे छे के तारुं निजपद पुण्यपाप बन्नेथी रहित छे तेने तुं देख. तारी रुचिना
वेगने अंतरमां वाळ. जेम रणे चडेला रजपूतनुं शौर्य छूपे नहि तेम चिदानंदने
अनुभवनारा ज्ञानीनां ज्ञान छूपे नहि. आत्माने साधवा माटे शूरवीर थइने जे जाग्यो
तेनो उत्साह छूपे नहि. ज्यां आत्माने साधवा जाग्यो त्यां अनादिकाळनी ऊंघ
क्षणमात्रमां दूर थइ जाय छे. अहा, संतोनी वाणी! कुंभकर्ण जेवानेय ऊंघमांथी जगाडी
दे छे. (कुंभकर्णनी ऊंघ छ मासनी