ः १२ः आत्मधर्मः २४२–२४३
कहेवाय छे ते मात्र अलंकार छे; राजा रावणना भाई कुंभकर्ण धर्मात्मा हता ने
बडवानी–चूलगिरि परथी ते मोक्ष पाम्या छे.) अंतरद्रष्टिथी जीव ज्यां जाग्यो त्यां
अनंतकाळनुं अज्ञान क्षणमात्रमां ज दूर थइ जाय छे. जेम घणां वखतनुं अंधारुं प्रकाश
थतांवेंत तत्क्षण ज दूर थइ जाय छे, लांबा वखतना अंधाराने टाळवा माटे कांइ लांबा
वखतनी जरूर पडती नथी, तेम अनादिकाळनुं अज्ञान पण सम्यग्ज्ञानवडे एक क्षणमां
ज दूर थइ जाय छे,–
कोटि वर्षनुं स्वप्न पण जागृत थतां शमाय,
तेम विभाव अनादिनो ज्ञान थतां दूर थाय...
ज्ञानप्रकाश थयो ने आत्मा जाग्यो त्यां तेनी ज्ञानदशा छानी रहे नहि. ते
पोताना चैतन्यपदने अनेक प्रकारना परभावोथी जुदुं ज देखे छे. आवी स्वानुभूति थइ
त्यां आत्मा जाग्यो.....ते मोक्षनो साधक थयो....ते धर्मी थयो.....तेणे निजपद प्राप्त कर्युं
ने स्वघरमां वास्तु कर्युं.
हवे, आवी सरस वात सांभळीने, निजपदनी प्राप्तिनो
जिज्ञासु शिष्य पूछशे के हे प्रभो! ते पद कयुं छे?–ने आचार्यदेव
एवा जिज्ञासु शिष्यने निजपदनुं स्वरूप बतावशे.
सुखनो मार्ग
आत्मा पोते निजस्वरूपथी ज सुखरूप छे.....एटले निजस्वरूपमां
रहेवुं ते ज सुख छे. निजस्वरूपथी बहार नीकळीने कांइपण परभावना
ग्रहणनी वृत्ति ते दुःख ज छे. अज्ञानीओ परना ग्रहणमां सुख माने छे,
ज्ञानी कहे छे के भाई, परना ग्रहणनी वृत्तिथी तारा सुखनो नाश थाय छे.
श्रीमद् राजचंद्र आ वात सरळ शैलीथी समजावतां कहे छे के–
“ सर्व जगतना जीवो कंइने कंइ मेळवीने सुख प्राप्त करवा ईच्छे छे.
मोटो चक्रवर्ती राजा ते पण वधता वैभव–परिग्रहना संकल्पमां प्रयत्नवान
छे, अने मेळववामां सुख माने छे. पण अहो! ज्ञानीओए तो तेथी
विपरीत ज सुखनो मार्ग निर्णीत कर्यो के किंचित् मात्र पण ग्रहवुं–ए ज
सुखनो नाश छे.” (८३२)