Atmadharma magazine - Ank 242-243
(Year 21 - Vir Nirvana Samvat 2490, A.D. 1964)
(Devanagari transliteration).

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मागशर–पोषः २४९०ः १३ः
निज पदनी प्राप्ति
निजपदनी प्राप्तिनो जिज्ञासु शिष्य पूछे छे के हे गुरुदेव! ते पद कयुं छे? ते मने
बतावो! आवा जिज्ञासु शिष्यने आचार्यदेव निजपद बतावे छे–
जीवमां अपदभूत द्रव्यभावो
छोडीने
ग्रह तुं यथा,
स्थिर, नियत, एक ज भाव
जेह स्वभावरूप उपलभ्य आ.
हे भव्य! जीवमां अपदभूत–एटले के जीवना स्वभावमां नहि एवा जे परद्रव्यो
अने परभावो तेमने छोडीने, निज स्वभावरूपे अनुभवाता एवा आ प्रत्यक्ष
अनुभवगोचर स्थिर चैतन्यभावने तुं निजपदपणे ग्रहण कर. ए तारुं पद छे.
आ भगवान आत्मामां जे घणा भावो छे तेमां जे रागादिभावो छे ते तो
अतत्स्वभावे अनुभवाय छे, एकरूप रहेनारा नथी, क्षणिक छे, भेळसेळवाळा छे, ने
अस्थिर छे, तेथी, ते तारुं स्थान थइ शके तेवा नथी, जीवने माटे ते अपदभूत छे.
ज्ञानादिभावो आत्मामां तत्स्वभावे अनुभवाय छे. आत्मानो अनुभव करतां
रागादिभावो तो बहार रही जाय छे ने चैतन्यभाव अभेदपणे अनुभवाय छे. जे
अभेदपणे अनुभवाय छे ते ज निजपद छे, ने जे भिन्नपणे अनुभवाय छे ते निजपद नथी
पण अपद छे. अहो, निजपदरूप ज्ञान तो परमार्थरसपणे स्वादमां आवे छे. निर्विकल्प
अनुभव थयो त्यां निजपदना परमार्थस्वादनो रस चाख्यो.....जगतना रस करतां जुदी
जातनो परमार्थरस निजपदना अनुभवमां ज्ञानी आस्वादे छे.
अहो, अंदरमां परभावोने अने स्वभावने जुदा पाडीने तुं देख तो तने तारा
परमार्थरसनो स्वाद अनुभवमां आवशे. स्वसन्मुख उपयोगमां जे अभेदपणे
अनुभवाय ते ज तारुं निजपद छे, ने उपयोगथी भिन्नपणे जे रही जाय–ते निजपदथी
बहार छे,–अपद छे. आत्माना आवा निजपदने ज्ञानीओ आस्वादे छे.
आचार्यदेव कहे छे के अहो, आ निजपद समस्त विपत्तिओनुं अपद छे,
निजपदमां कोइ विपत्तिनुं स्थान नथी; निजपद निर्भय छे; अने आ निजपद पासे
बीजा बधा पदो अपदरूप ज भासे छे. रागनो एक विकल्प पण चैतन्यना निजपद
पासे अपद छे,