
मिथ्याद्रष्टि शुभरागमां तत्पर होय तोपण तेने पापी कह्यो. अहा, सम्यग्द्रष्टिधर्मात्मानी
शुं दशा छे तेनी तेने खबर पण नथी. ज्ञानीए राग अने ज्ञाननी एकता तोडी नांखी
छे, रागथी भिन्न ज्ञानपरिणतिवडे तेने निर्जरा ज थया करे छे. ज्ञानीने भेदज्ञानना बळे
अशुभ वखतेय (अशुभने लीधे नहि. पण अशुभना काळे) निर्जरा थइ रही छे, ने
अज्ञानीने मिथ्यात्वने लीधे शुभ वखतेय बंधन ज थया करे छे. ज्ञानीने अशुभ
वखतेय वैराग्यपरिणति चालु छे, ने अज्ञानीने शुभ वखतेय पापी कह्यो. अहो, आ
अंतरना अभिप्रायनी वात बहारथी कइ रीते ओळखशे? केवी दशा होय तो ज्ञानी
कहेवाय एनी जेने खबर नथी ने व्रत–समितिना रागमां धर्म मानीने तेमां ज तत्पर
रहे छे, तेने चैतन्यनो उत्साह नथी आवतो पण रागनो उत्साह आवे छे–एवा जीवने
सम्यग्दर्शन तो नथी पण सम्यग्दर्शन शुं छे तेनी तेने खबर पण नथी.
एम लागे के ओहोहो! केटलो वैराग्य छे! पण रागमां जे रत छे तेने वैराग्य
केवो? ज्ञान अने रागनी भिन्नताना अनुभव वगर वैराग्यनो अंश पण साचो
होय नहि. आ व्रत–समितिनो राग मने मदद करशे, व्रत–समितिनो राग करतां
जाणे के में घणुं करी नाख्युं–एवी मिथ्याबुद्धिमां अनंता रागनुं सेवन तेने पडयुं छे
तेथी अध्यात्मद्रष्टिमां ते हजी पापी ज छे. अने सम्यग्द्रष्टि अविरत होय–
गृहवासमां होय तोपण तेने भेदज्ञानना बळे समस्त परभावो प्रत्ये वैराग्य ज छे,
अने एेवा ज्ञानवैराग्यने लीधे निर्जरा थया करे छे. ज्ञानीना वैराग्यनुं अचिंत्य
सामर्थ्य अज्ञानी जाणतो नथी.
‘सम्यग्द्रष्टि’ माने, एवा जीवने सम्यक्त्व केवुं? ने तेने वैराग्य केवो? सम्यग्द्रष्टिए
तो राग अने ज्ञानने भेदज्ञानवडे भिन्नभिन्न जाण्या छे, रागना एक अंशने पण ते
चैतन्यमां भेळवतो नथी एटले राग होवा छतां तेने मिथ्यात्व नथी. पहेलां यथार्थ
भेदज्ञान करवुं जोइए; आत्मानुं वास्तविक स्वरूप शुं छे? ने रागादि परभावो केवा
छे? तेने ओळख्या वगर परभावथी साची विरक्ति क्यांथी थाय? अबंधपणुं तो
ज्ञानपरिणतिथी छे, कांइ रागपरिणतिथी अबंधपणुं नथी. ज्ञानपरिणति प्रगट कर्या
वगर एम माने के हुं तो अबंध छुं–तो ते स्वच्छंदी छे,–भले शुभराग होय तोपण
ते स्वच्छंदी छे; पोताना स्वछंदथी ज ते पोताने सम्यग्द्रष्टि माने छे; खरेखर ते
मिथ्याद्रष्टि ज छे, ने एवा