Atmadharma magazine - Ank 242-243
(Year 21 - Vir Nirvana Samvat 2490, A.D. 1964)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 28 of 37

background image
मागशर–पोषः २४९०ः २पः
मिथ्याद्रष्टिने पापी कह्यो छे. (सम्यक्त्वसन्मुखमिथ्याद्रष्टिने भद्र कहेवाय छे.)
अरे, व्रत–समितिरूप शुभभाव होवा छतां पापी कह्यो? ए वात
सांभळतां घणाने राड बोली जाय छे. पण भाई! सिद्धांतमां मिथ्यात्वने ज सौथी
मोटुं पाप कह्युं छे. ज्यां सुधी मिथ्यात्व रहे त्यांसुधी शुभ–अशुभ सर्व क्रियाने
अध्यात्ममां परमार्थे पाप ज कहेवाय छे. व्यवहारीजीवोने पापथी छोडाववा ते
शुभने पुण्य कहेवामां आवे छे. पण ते पुण्यमां एवी ताकात नथी के जीवने
सम्यग्दर्शनादि पमाडे. पुण्यवडे एकपण भव घटे नहि. सम्यग्दर्शनमां अनंत
भवनो नाश करवानी ताकात छे.
* * *
स....त्पु....रु....ष
“सत्पुरुषनुं खरेखरुं स्वरूप जाणवुं जरूरनुं छे. मध्यम सत्पुरुष
होय तो वखते थोडा काळे तेमनुं ओळखाण थवुं संभवे, कारण के
जीवनी मरजी अनुकूळ ते वर्ते, सहज वातचीत करे अने आवकारभाव
राखे तेथी जीवने प्रीति थवानुं कारण बने. पण उत्कृष्ट सत्पुरुषने तो
तेवी भावना होय नहीं; तेथी कां तो जीव अटकी जाय, अथवा मुंझाय,
अथवा तेनुं थवुं होय ते थाय.”
(श्री. रा. उपदेशछायाः ३)
***
सत्संगनुं फळ
“सत्संग थयो छे तेनो शो परमार्थ? सत्संग थयो होय ते
जीवनी केवी दशा थवी जोइए?–ते ध्यानमां लेवुं. पांच वरसनो
सत्संग थयो छे तो ते सत्संगनुं फळ जाहेर थवुं जोईए, अने ते जीवे
ते प्रमाणे वर्तवुं जोईए. ए वर्तन जीवे पोताना कल्याणना अर्थे ज
करवुं पण लोकोने देखाडवा अर्थे नहीं. जीवना वर्तनथी लोकोमां एम
प्रतीत थाय के जरूर आने मळ्‌या छे ते कोइ सत्पुरुष छे अने ते
सत्पुरुषना समागमनुं, सत्संगनुं आ फळ छे, तेथी जरूर ते सत्संग छे,
एमां संदेह नथी.”
(श्री. रा. उपदेशछायाः ३)