ः २६ः आत्मधर्मः २४२–२४३
विधविध–संग्रह
[अहीं केटलाक विधविध चर्चा वगेरेनो संग्रह आप्यो छे ते जिज्ञासुओने गमशे]
वीरहाक
वीरहाकथी मोक्षने साधवा नीकळ्यो तेना भाव ढीला होय नहीं.
आत्माना शोधकने......
हे आत्माना शोधक! अंतरमां आ ज्ञानस्वरूप आत्माने अनुभववा माटे, बीजो
बधो कोलाहल (चिंता) छोडीने एकधारो छ महिना प्रयत्न कर. निश्चळपणे लगनीथी
अंतरमां तीव्र अभ्यास कर....तने जरूर आत्मप्राप्ति थशे. आत्मानी पाछळ लागे तेने
सम्यग्दर्शन जरूर थाय ज.
समन्तभद्र–भारती
मात्र न अने त अक्षरोवडे रचायेला नीचेना श्लोकनी पहेली लाइनमां जे अक्षरो छे
ते ज अक्षरो बीजी लाइनमां छे; आवी रचनावाळा श्लोकने ‘चक्रश्लोक’ कहेवाय छे. आ
श्लोकद्वारा श्री समन्तभद्रस्वामीए विमलनाथ भगवाननी स्तुति करी छेः–
नेतानतनुते नेनोनितान्तं नाततो नुतात्।
नेता न तनुते नेनो नितान्तं ना ततो नुतात्।।
उपरोक्त श्लोकनो अर्थ आ प्रमाणे छेः हे पापरहित, विमलनाथ जिनेन्द्र!
आप शरणमां आवेला संसारी प्राणीओने कोइ जातना कलेश वगर शरीररहित
अवस्था (सिद्धपद) प्राप्त करावी दो छो, तथा आपने नमस्कार करवाथी प्राणी बधानो
स्वामी अने नेता थइ जाय छे. माटे हे भव्यजनो! आवा आ विमलनाथ भगवानने
तमे पण नमस्कार करो. [समन्तभद्रस्वामीरचित स्तुतिविद्या]
“कति न कति न वारान्”....
धीर, वीर, द्रढ ब्रह्मचारी श्री जंबुकुमार ज्यारे वैराग्यथी दीक्षा लेवा तैयार
थया छे अने तेनी माता शोकथी विलाप करे छे त्यारे जंबुकुमार कहे छे के हे माता! तुं
जलदी शोकने छोड....कायरता छोड. आ संसारनी बधी अवस्था क्षणभंगुर छे एम तुं
चिंतन कर. हे माता! आ संसारमां में इन्द्रियसुखो घणीवार भोगव्या पण तेनाथी
तृप्ति न मळी, एवा अतृप्तिकारी विषयोथी हवे बस थाओ. हवे तो अमे अविनाशी
चैतन्यपदने ज साधशुं.
वळी हे माता! सांभळः–
कति न कति न वारान् भूपतिर्भूरिभूतिः।
कति न कति न वारानत्र जातोस्मि कीटः।।