Atmadharma magazine - Ank 242-243
(Year 21 - Vir Nirvana Samvat 2490, A.D. 1964)
(Devanagari transliteration).

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मागशर–पोषः २४९०ः २७ः
नियतमिति न कस्याप्यस्ति सौख्यं न दुखं।
जगति तरलरुपे किं मुदा किं शुचा वा।।
आ संसारमां भमतां वारंवार हुं मोटी विभूति सहित राजा थयो ने वारंवार कीट
पण थयो; आ तरंग जेवा चंचळ संसारमां कोइ प्राणीने इन्द्रियसुख के दुःख कायम एकसरखा
रहेता नथी, माटे सुखमां हर्ष शो? ने दुःखमां शोक शो? माटे हे माता! तुं शोकने छोड!
ए प्रमाणे वैराग्यमय अमृतवचनो वडे माताने संबोधीने जंबुकुमार वन तरफ
चाल्या....ने सौधर्मस्वामी पासे जइने दीक्षा लीधी....थोडा ज वर्षोमां केवळज्ञानने साध्युं.
धन्य एमनो वैराग्य! धन्य एमनुं जीवन.
शास्त्राभ्यासनुं फळ
(मोक्षमार्ग प्रकाशक अः ७ ना प्रवचनमांथी)
शास्त्रमां जे अनेकविध उपदेेश छे तेमां मने कार्यकारी शुं छे?–मारुं हित कइ रीते
छे?–एम विवेकपूर्वक पोताना हितनो उद्यम करवो. पण पहेलेथी जेनी एवी बुद्धि छे के हुं
शास्त्र भणीने बीजाने उपदेश आपुं,–तो ते पोताना हितने माटे नथी भणतो पण उपदेशक
थवा माटे शास्त्र भणे छे, तेनी प्रवृत्ति अयथार्थ छे. परंतु शास्त्रनो अभ्यास तो पोताना
भला माटे करवानो छे. शास्त्रनो अभ्यास जे रीते आत्मानुं हित थाय ते रीते करवो, पण
आत्मानुं हित चूकीने एकला शास्त्राभ्यासमां लाग्यो रहे तो तेमां ऊंडे ऊंडे मानादिना
पोषणनो अभिप्राय रह्या करे छे. ज्ञानी तो शक्ति मुजब शास्त्राभ्यास करीने तत्त्वनो
निर्णय करे छे तथा ज्ञाननी निर्मळता अर्थे शास्त्राभ्यास करे छे, ए रीते तत्त्वनिर्णय वडे ते
पोतानुं हित साधे छे. आत्मानुं हित थाय तेवा उद्यमनी मुख्यता राखीने पछी विशेष शक्ति
होय तो न्यायशास्त्रो वगेरेनो पण अभ्यास करवो. जो विशेष अभ्यासनी शक्ति न होय तो
सुगम शास्त्रोना अभ्यास वडे पोतानुं हित थाय तेम करवुं. एकली परसन्मुखताथी शास्त्रनो
अभ्यास करे, पण स्वसन्मुख थइने ‘हुं ज ज्ञानस्वभावी छुं’ एम न अनुभवे त्यांसुधी
सम्यग्ज्ञान थाय नहि. ‘आत्मा ज्ञानस्वरूप छे–एम शास्त्रमां कह्युं छे’–एम जाणे छे. पण
‘हुं ज्ञानस्वरूप छुं.’–एम अज्ञानी जाणतो नथी, एटले साचुं तत्त्वश्रद्धान तेने होतुं नथी,
शास्त्राभ्यासनुं साचुं फळ तेने नथी. यथार्थ तत्त्वश्रद्धा थइने आत्मानो अनुभव थाय ते
शास्त्राभ्यासनुं साचुं फळ छे.
धन्य ए संतो
मेरा मारग न्यारा सबसें, पण शिवमारगसे नहि न्यारा;
वीतरागका वचन प्रमाणे समजे तो जगकुं प्यारा.....
सच्चा कहे जिनवाणी खुल्ला, समजे ज्ञानी मस्ताना,
मस्ताना का मारग मुक्ति शुं जाणे ते दीवाना.....
धन धन जगमां एवा सन्तो संगत तेनी बहु सारी,
सन्तजनो सहु चढते भावे, हुं जाउं तस बलिहारी.... भक्तिमांथी