Atmadharma magazine - Ank 242-243
(Year 21 - Vir Nirvana Samvat 2490, A.D. 1964)
(Devanagari transliteration).

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ः २८ः आत्मधर्मः २४२–२४३
आ....नं....द....नुं वे....द....न
‘दर्शन–ज्ञान–चारित्रने हंमेशा प्राप्त छे ते आत्मा छे’ एम श्री गुरुए ‘आत्मा’
समजाव्यो के तुरत ज अंतर्मुख लक्ष करीने शिष्य समजी गयो,–ते समजतां शिष्यना
आत्मामां शुं थयुं? के तुरत ज अतीन्द्रिय आनंदना वेदन सहित सुंदर बोधतरंग तेना
अंतरमां प्रगटया. खरो जिज्ञासु शिष्य तुरत ज समजी जाय छे....“प्रभो! ‘आत्मा’ कहीने
आप शुं बताववा मांगो छो!” एम शिष्यने अंतरमांथी जिज्ञासा जागी, अने जिज्ञासु
थइने टगटगपणे आत्मा समजवा तरफ उपयोगने एकाग्र कर्यो. आवा तैयार शिष्यने ज्यां
आचार्यदेवे कह्युं के “आवा दर्शन–ज्ञान–चारित्र स्वरूप आत्मा छे”–त्यां तुरत ज अंतरमां
ऊतरीने आनंदसहित ज्ञान तरंगवडे ते शिष्य आत्माने समजी गयो;–तेने आनंदमय
ज्ञानतरंग सहित आत्मानी अनुभूति प्रगट थइ.....जुओ, आवी अनुभूति थाय त्यारे
आत्मा समज्यो कहेवाय. आनुं नाम सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान! सूक्ष्मभेदना लक्षमां
अटकयो होय त्यांसुधी पण आत्माने समज्यो कहेवाय नहि. “आत्मा” समजतां ज अंदर
अपूर्व आनंद सहित सुंदर–मनोहर ज्ञानतरंग ऊछळ्‌या. आत्मा समजे ने अंदर आवा
आनंदनुं वेदन न थाय–एम बने नहि.
(स. गा. ८ ना प्रवचनमांथी)
मु....नि....व....रो....नी जे....म
अरे, चैतन्यअनुभूतिनो केटलो महिमा छे ने एनो अनुभव करनार धर्मात्मानी
शी स्थिति छे तेनी लोकोने खबर नथी. (अनुभवीना अनुभवमां बारे अंगनो सार
समाइ गयो छे.) अविरत सम्यग्द्रष्टिना अंतरमां पण भेदज्ञानना बळे क्षणेक्षणे
सिद्धपदनी आराधना चाली रही छे; जेम मुनिवरो मोक्षना साधक छे तेम आ धर्मात्मा
पण मोक्षना साधक छे.
जीवनमां सारा संस्कार
संसारनुं स्वरूप तो असार ज छे. आवा मनुष्यभवमां जे कोई देव–गुरु प्रत्येनी
भक्तिनो भाव के आत्माने समजवाना सारा संस्कार आत्मामां नाख्या होय ते ज
आत्माने लाभरूप थाय छे. आवा प्रसंगथी आत्मामां द्रढ निश्चय करवो के आपणे
जीवनमां आत्मामां सारा संस्कार जरूर पाडवा छे.
***
आ मनुष्यभवमां देव–गुरु प्रत्ये अपूर्व रुचि प्रगटाववी के जेथी आत्माने
भवनो नाश थइने आत्मानुं साचुं सुख प्रगट थाय. एवी भावना जरूर करवी, ते ज
शरणरूप छे. (एक पत्रमांथी)