आत्मामां शुं थयुं? के तुरत ज अतीन्द्रिय आनंदना वेदन सहित सुंदर बोधतरंग तेना
अंतरमां प्रगटया. खरो जिज्ञासु शिष्य तुरत ज समजी जाय छे....“प्रभो! ‘आत्मा’ कहीने
आप शुं बताववा मांगो छो!” एम शिष्यने अंतरमांथी जिज्ञासा जागी, अने जिज्ञासु
थइने टगटगपणे आत्मा समजवा तरफ उपयोगने एकाग्र कर्यो. आवा तैयार शिष्यने ज्यां
आचार्यदेवे कह्युं के “आवा दर्शन–ज्ञान–चारित्र स्वरूप आत्मा छे”–त्यां तुरत ज अंतरमां
ऊतरीने आनंदसहित ज्ञान तरंगवडे ते शिष्य आत्माने समजी गयो;–तेने आनंदमय
ज्ञानतरंग सहित आत्मानी अनुभूति प्रगट थइ.....जुओ, आवी अनुभूति थाय त्यारे
आत्मा समज्यो कहेवाय. आनुं नाम सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान! सूक्ष्मभेदना लक्षमां
अटकयो होय त्यांसुधी पण आत्माने समज्यो कहेवाय नहि. “आत्मा” समजतां ज अंदर
अपूर्व आनंद सहित सुंदर–मनोहर ज्ञानतरंग ऊछळ्या. आत्मा समजे ने अंदर आवा
आनंदनुं वेदन न थाय–एम बने नहि.
समाइ गयो छे.) अविरत सम्यग्द्रष्टिना अंतरमां पण भेदज्ञानना बळे क्षणेक्षणे
सिद्धपदनी आराधना चाली रही छे; जेम मुनिवरो मोक्षना साधक छे तेम आ धर्मात्मा
पण मोक्षना साधक छे.
आत्माने लाभरूप थाय छे. आवा प्रसंगथी आत्मामां द्रढ निश्चय करवो के आपणे
जीवनमां आत्मामां सारा संस्कार जरूर पाडवा छे.
शरणरूप छे. (एक पत्रमांथी)