वगेरे छे, पण विकार के कर्मनुं मारा स्वभावमां अस्तित्व नथी.–आ रीते महान
आत्मसत्ताने लक्षमां लइने तेमां एकाग्रतावडे शुद्धिनी वृद्धि थाय, विकार टळतो जाय ने
कर्मो निर्जरता जाय–तेनुं नाम निर्जरा छे.
एवा आत्मामां वास कर्यो; तेणे खरूं वास्तुं कर्युं. भगवान आत्मा एवो छे के स्वसंवेदन
प्रत्यक्षथी आखो लक्षमां आवे छे. एना लक्ष वगर परनो–रागनो महिमा मटे नहि.
ज्ञानी धर्मात्माने स्वभावनो ज आदर छे, रागनो आदर नथी एटले ते निर्जरा खाते ज
छे; स्वभावना आनंदस्वाद आगळ परभावो गळी जाय छे–झरी जाय छे. अहा, ज्ञानीए
अंतरमां चैतन्य साथे रमत मांडी, ते रमतमां तेने बीजी परभावनी रमतुं रुचती नथी.
पूर्णानंदी आत्मा तेने रुचे छे ने परभावनी वृत्ति ते तेने खूंचे छे. अहा, सम्यग्दर्शनना
ध्येयमां आखो भगवान भेटयो!! मिथ्यादर्शनमां विकारने ने संयोगने भेटतो, ने
सम्यक्त्व थतां पूर्ण आनंदना सागरनो भेटो थयो. जुओ तो खरा समकितनो महिमा!!
ज्यां भगवानना भेटा थया त्यां हवे मलिनभावो केम गोठे? अनंतकाळे जे हाथमां
नहोतो आव्यो एवो चैतन्य ज्यां नजरमां आव्यो त्यां आखी द्रष्टि फरी गइ. हुं शरीरना
संयोगमां न आवुं, विकारमां हुं न आवुं, हुं तो मारा अनंत ज्ञानादि स्वभावमां ज छुं,–
आवी शुद्ध संपदा उपरनी द्रष्टिने लइने ज्ञानीने ते संपदा खीलती जाय छे. समवसरणमां
चकलां ने वाघ सम्यग्द्रष्टि होय तेने पण आवी द्रष्टिथी शुद्धता वधती जाय छे ने
चैतन्यसंपदा खीलती जाय छे. अल्प रागादि छे तेना भोगवटानी मुख्यता नथी,
शुद्धतानी ज मुख्यता छे. बहारमां अग्निनी भठ्ठीना ढगला वच्चे पडेलो नरकनो
सम्यग्द्रष्टि जीव अंतरमां चैतन्य शांत शीतळ रसने वेदी रह्यो छे. तेने अशुद्धता ने कर्मो
निर्जरता ज जाय छे. चैतन्य उपर द्रष्टि पडी छे तेने प्रतापे आ निर्जरा थाय छे.–आवी
द्रष्टि प्रगट करीने चैतन्यमां वास करवो ते खरुं वास्तु छे.