ः २ः आत्मधर्मः २४२–२४३
ध....र्मा....त्मा....नो सं....ग
सत्संगनुं विधान करतां भगवानश्री कुंदकुंदाचार्यदेव कहे छे केः लौकिकजनना
संगथी संयत पण असंयत थाय छे; तेथी जो श्रमण दुःखथी परिमुक्त थवा इच्छतो
होय तो ते समान गुणवाळा श्रमणना अर्थात् अधिक गुणवाळा श्रमणना संगमां
नित्य वसो–
तेथी श्रमणने होय जो दुःखमुक्ति केरी भावना.
तो नित्य वसवुं समान अगर विशेष गुणीना संगमां. (२७०)
अहा, मुनिओने संबोधीने पण आ सत्संगनो उपदेश छे, तो बीजा
जिज्ञासुओनी तो शी वात! तेणे तो आत्मार्थ साधवा माटे जरूर धर्मात्मा–गुणीजनोना
सत्संगमां रहेवुं आवश्यक छे.
वर्तमान कळियुगमां पण पू. श्री कहानगुरु जेवा मंगलमूर्ति संतधर्मात्माओनो
आपणने साक्षात् सुयोग सांपडयो छे ते खरेखर आपणुं परम भाग्य छे. धर्मना
जिज्ञासु आत्मार्थी जीवने दुःखप्रसंगोथी भरपूर आ जगतमां धर्मात्मानो योग महा
शरणरूप छे. अने धर्मात्मानो योग मळ्या पछी धर्मात्मानी शीळी छत्रछायामां निरंतर
वसवानो सुयोग बनवो ते तो मुमुक्षुने माटे महाभाग्यनी वात छे. जेम मा–बापनी
हाजरीमात्र पण बाळकने प्रसन्नकारी ने हितकारी छे तेम धर्मात्मानो योग मुमुक्षुजीवने
प्रसन्नकारी ने हितकारी छे.
आत्मार्थी जीव सदाय पोतानी नजर समक्ष धर्मात्माने देखी देखीने पोताना
आत्मार्थनुं पोषण करे छे....पोतानुं आखुंय जीवन धर्मात्माना जीवन अनुसार करवा
भावना भावे छे....एटले धर्मात्माना आराधकजीवनने ध्येयरूप राखीने ज ते पोतानुं
जीवन जीवे छे. अने ज्यारे धर्मात्मानी मीठी नजर के मधुर वाणी तेना उपर वर्षे छे
त्यारे ते आत्मार्थीनो आत्मा एवो तो आह्लादित थाय छे के जाणे सन्तोना अतीन्द्रिय
आनंदनी ज प्रसादी मळी होय!
आत्मार्थनुं रक्षण करनारी अने सदाय सन्मार्गे दोरनारी एवी ज्ञानी गुरुओनी
मंगळछत्रछाया जेना शिर उपर वर्ती रही छे एवा जीवने जगतनी चिंताओ सतावी
शकती नथी, केमके धर्मात्मानुं दर्शनमात्र पण संसारसंबंधी समस्त चिंताओने
भूलावीने आत्माने मोक्षमार्ग प्रत्ये उत्तेजित करे छे.
अहा, आवा धर्मात्माओ जगतमां सदा जयवंत वर्तो के जेमना संगथी
सम्यक्त्वादि गुणोनी प्राप्ति तथा वृद्धि थाय छे.