माह: २४९० आत्मधर्म : ७:
अनुभूति करीने कहे छे के अहो, भगवाननी वाणीए आवा निर्बाध विशुद्ध आत्माना
अनुभवनी उपलब्धिनो उपाय जगतने उपदेश्यो छे. “तुं ज्ञानघन छो, आनंदरूप छो, शुद्ध छो”
एम आत्मानुं स्वसंवेदन करवानो भगवाननो उपदेश छे. जुओ तो खरा–भरतक्षेत्रमां अत्यारे
तीर्थंकरनो विरह... पण ते तीर्थंकरोनो उपदेश केवो हतो ते वात कुंदकुंदाचार्यदेवे स्पष्ट बतावीने
तीर्थंकरना विरहा भूलावी दीधा छे, ने अमृतचंद्राचार्यदेवे पण अलौकिक टीका वडे कुंदकुंदप्रभुना
हृदयना गंभीर रहस्य खोलीने गणधर जेवुं काम कर्युं छे. वाह! अंदरथी चैतन्यनो पावर फाटी
जाय–एवी टीका छे, जराक अंदर लक्षमां ल्ये तो मुमुक्षुने तो अंदरनी दशा फरी जाय.
कोई कहे के केवा भावे सांभळवुं? –तो कहे छे के भाई, सांभळवाना रागथी आत्माने
जरीक मोकळो करीने सांभळवुं. समयसारमां पण कहे छे के ‘हुं सिद्ध छुं’ एवुं लक्ष करीने
सांभळजे, रागना लक्षे सांभळीश नहि, तेनी मुख्यता करीश नहि. अमारा अने तारा आत्मामां
सिद्धोने स्थापीने अमे तने शुद्धात्मप्राप्तिनी वात संभळावीए छीए, तो तेने तारा अंतरमां
स्थापीने तुं सांभळजे. रागने हृदयमांथी कांढी नाखजे एटले के श्रवण वगेरे वखते जे राग छे ते
राग उपर तारा लक्षनुं जोर न देजे, पण अंदर तेना वाच्यभूत शुद्धात्मा उपर तारा लक्षनुं जोर
देजे. –आवा भावश्रवणने अपूर्व मंगळ कह्युं छे.
जुओ तो खरा, आ भगवाननो उपदेश!! जेनाथी जीवनुं हित थाय एवो ज
छे, तेनी सन्मुखताथी ज जीवनुं हित थाय छे. ज्ञाननी निःशंकताना जोरे आचार्यदेव कहे छे के
बधाय भगवंतोए..... अत्यारसुधीना काळ प्रवाहमां अनंता तीर्थंकरो थया ने अत्यारे
विदेहक्षेत्रमां बिराजे छे–ते बधाय तीर्थंकरोए चैतन्यना हितरूप मोक्षमार्गनो उपदेश आप्यो;
भगवाननो उपदेश सर्वे जीवोने हितरूप छे, अमृत जेवो छे. कह्युं छे के–
वचनामृत वीतरागना परमशांतरसमूळ,
औषध जे भवरोगनां कायरने प्रतिकूळ.
भवरोगने हरनारा एवा जितभव–जिनराज, तेमनी वाणी पण भवने हरनारी छे;
मिथ्यात्वरूपी झेरने उतारी नांखीने परम अमृतरूप मोक्षपदने पमाडनारी होवाथी वाणी पण
अमृत छे. मोक्षने ‘अमृत’ कहेवाय छे, ज्यां फरीने मरण नथी; मोक्षदशा प्रगटी ते प्रगटी. ते हवे
आदिअनंत अमृतपणे टकी रहेशे, तेथी ते अमृत छे. एवा एवा अमृतपदनी प्राप्तिनो मार्ग
बतावनारी वीतरागनी वाणीने पण अमृत कहेवाय छे. एवी अमृतवाणी परम शांतरसनुं मूळ
छे. चैतन्यना अनुभव–