आचार्यदेवे निर्जरा–अधिकारमां समजाव्यो छे.
निर्जरा होय छे. भेदज्ञानवगर निर्जरा होती नथी. जेने जुदुं करवानुं छे तेने पोताथी जुदुं जाण्या
विना जुदा करवानी क्रिया कई रीते करशे? भगवान आत्मानी ख्याति–प्रसिद्धि रागवडे नथी,
चैतन्यभाववडे ज भगवान आत्माथी प्रसिद्धि छे. भेदज्ञानवडे भगवान आत्माने चैतन्यभावे
जेणे प्रसिद्ध कर्यो छे–एवा धर्मात्माने चैतन्यधाममां लीनतावडे निर्जरा थाय छे. राग ने ज्ञाननी
भिन्नताने बदले, रागने लाभनुं कारण जे माने तेने अशुद्धता अटके नहीं ने निर्जरा थाय नहि.
रागमां एकता ते मोटी अशुद्धता छे, ते छूट्या वगर शुद्धता के संवर निर्जरा थाय नहीं.
तरबोळ वर्ते छे, एटले बाह्य उदय तेने बंधनुं कारण थया विना निर्जरतो ज जाय छे. धर्मीजीवने
बहारमां पुण्यनो उदय न होय–एम नथी; उदय भले हो, पण ते उदयना काळे धर्मीने भेद
ज्ञानना बळे ज्ञानपरिणतिमां रागनो अभाव ज छे, तेथी तेनी ते परिणतिना बळे तेने निर्जरा
ज थती जाय छे. अहो, आ सम्यक्श्रद्धानुं बळ छे. सम्यक्श्रद्धानी शक्तिथी रागना एक
अंशमात्रने पण धर्मीजीव पोताना चैतन्यभावमां स्वीकारतो नथी; मारो आत्मा तो चैतन्यनो
सागर छे. आवा स्वभावनी द्रष्टिमां धर्मीजीवने आखा जगत प्रत्ये वैराग्य वर्ते छे. तेने
बाह्यसंयोगमां चेतन–अचेतन द्रव्यनो उपभोग देखाय तो पण तेनी अंर्तद्रष्टिना बळे तेने
निर्जरा थाय छे. अज्ञानीने मिथ्याद्रष्टिने लीधे रागमां एकताबुद्धिना सद्भावथी जे बंधनुं
निमित्त थाय छे, ते ज संयोग ज्ञानीने