Atmadharma magazine - Ank 244
(Year 21 - Vir Nirvana Samvat 2490, A.D. 1964)
(Devanagari transliteration).

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: १४: आत्मधर्म माह: २४९०
निर्दोष द्रष्टिने लीधे–रागमां एकताबुद्धिना अभावथी निर्जरानुं ज निमित्त थाय छे. एक ज्ञानी
लीलोतरी खाता होय ने एक अज्ञानी लीलोतरी खाता होय–ते वखते तेमां ज्ञानीने तो निर्जरा
थती जाय छे ने अज्ञानीने बंधन थतुं जाय छे. –शुं कारण? के अंतरनी द्रष्टि क्यां पडी छे तेनी
वात मुख्य छे. ज्ञानीने आखा जगतना रागमांथी द्रष्टि ऊडी गई छे ने चैतन्यस्वभावमां ज
द्रष्टि थई छे, ते द्रष्टिमां रागना अंशनुं पण स्वामीत्व नथी, त्यां बाह्यपदार्थनी शी वात?
आवी द्रष्टि ते ज निर्जरानुं कारण छे अने अज्ञानी चैतन्यने चूकीने आखा जगतना रागनो ने
संयोगने चूकीने आखा जगतना रोगोनो ने संयोगनो स्वामी थईने मिथ्याभावमां वर्ते छे; ते
मिथ्याभाव ज बंधनुं कारण छे.
अहीं ध्यान राखवुं के बाह्यवस्तुनो उपभोग ते कांई धर्मीने निर्जरानुं कारण नथी
बताववुं; पण ते उपभोगना काळे ज्ञानीना अंतरमां जे अचिंत्य भेदज्ञान परिणति वर्ती रही
छे ते निर्जरानुं कारण छे. अज्ञानी बहारथी त्यागी थईने बेसे तोपण अंतरमां भेदज्ञानना
लीधे, रागमां ज तेनी परिणति वर्तती होवाथी तेने बंधन ज थाय छे. अंतरनी द्रष्टिने
ओळख्या वगर आ वात समजाय तेवी नथी. अहो, ज्ञानीनी श्रद्धाशक्तिनुं कोई अचिंत्य जोर
छे... के ते शक्तिने लीधे तेने अशुभ वखते पण निर्जरा थया करे छे. जुओ, असम्यक्त्वनुं
महात्म्य!!–के जेना सामर्थ्यथी उपभोगना काळे पण निर्जरा ज थया करे छे. ज्ञानीनी
अंतरपरिणतिनो आ अचिंत्य महिमा छे. आत्माना आनंदनो भोगवटो ज्यां प्रगट्यो त्यां
रागादिना के बाह्यपदार्थोना भोगवटामांथी द्रष्टि ज ऊडी गई, रागादिना एक अंशनो पण
भोगवटो धर्मीनी द्रष्टिमां नथी. ए द्रष्टिनुं रहस्य बहारथी समजाय तेवुं नथी. जेटलो अशुभ
राग छे तेटलुं बंधन छे, पण ते घणुं अल्प छे, ते बंधनना काळे पण सम्यकत्वनी शक्तिथी
अनंतगणी निर्जरा थया करे छे; माटे धर्मीने निर्जरानी ज मुख्यता छे. जे अल्पबंधन छे तेनुं
स्वामीत्व तेने नथी.
सम्यग्द्रष्टि ‘ज्ञानी’ छे ने ज्ञानीने रागद्वेष–मोहनो अभाव छे, माटे ते ‘वितरागी’ छे.
कोईपण प्रसंगे मिथ्यात्वसंबंधी राग ज्ञानीने जरा पण थतो नथी; एटले गमे ते प्रसंगमां पण
तेने मिथ्यात्वसंबंधी बंधन तो जरापण थतु ज नथी. भिन्न चैतन्यनुंं ज्यां भान थयुं, त्यां
परिणति रागथी पण जुदी पडी, स्वभाव अने विभावनी धारा जुदी पडी, त्यां स्वभावधारा
बंधननुं कारण केम होय? ज्ञानीने स्वभावधारा सतत् चाली जाय छे, तेना बळे निर्जरा ज
थाय छे. क्यां ज्ञानी? चोथा गुणस्थाने रहेला गृहस्थ धर्मात्मा ज्ञान छे, तेने पण आवी दशा
होय छे. आ कोई ध्यानमां बेठेला मोटामोटा मुनिओनी ज वात नथी, परंतु सम्यग्द्रष्टि
अविरत गृहस्थ होय, स्त्री