काळे पण निर्जरा ज थया करे छे, अने ते वैरागी छे. अज्ञानी उपरटपके जुए छे, ज्ञानी
अंतरना आंतरा भाळे छे. ज्ञानी सामग्री भोगवे छे–एम अज्ञानी देखे छे, अरे, ज्ञानी तो
ज्ञानधारारूपे परिणमतो थको ने रागथी विरकत ज रहेतो थको, ते काळे कर्मोनी निर्जरा ज करे
छे.
कर्मोने बांधे छे, तेणे जरा पण राग छोड्यो एम ज्ञानी कहेता नथी. अने सम्यग्द्रष्टिने कदाच
एवा ठाठवैभव होय के अज्ञानी पासे होये नहि–छतां सम्यग्द्रष्टि परम वैरागी छे, ते वैराग्य
दशाने स्थूल अज्ञानीओ ओळखी शकता नथी.
जोवानुं मन थाय छे. विमानमां बेसीने त्यां जाय छे; ने माताजीने देखतां ज आनंद अने
आश्चर्यथी ९६ करोड माणसोना लश्करमां कोलाहल थई जाय छे के माताजी पधार्या!! ....
माताजी पधार्या!! कोलाहल सांभळीने भरतने थाय छे के अरे, वळी शुं थयुं? शेनो छे आ
कोलाहल!! एम कहीने तलवार काढीने तैयार थाय छे. पछी ज्यां खबर पडी के अहो, माताजी
पधार्या छे!! तरत ज विनयथी सामे जईने बहुमान करे छे ने भक्तिपूर्वक मातानी आरति
उतारे छे. माता ‘ना ना’ करे छे पण भरत कहे छे के माता! बोलशो नहीं, अमे आपना दिकरा
छीए... आपनी पासे बाळक छीए... जुंओ, आ छ खंडनो चक्रवर्ती! जेना वैभवनो पार नहीं,
छतां द्रष्टिमां एक चिदानंदस्वभाव सिवाय बीजे क््यांय अंशमात्र स्वामीपणुं नथी, आखा
जगतथी विरक्त छे. माता पण धर्मात्मा छे. चक्रवर्ती आरती ऊतारे छे पण अंदर भिन्नतानुं
भान छे. अमारी महत्ता अमारा चैतन्यमां छे–आवा सम्यक्भानमां धर्मात्माने निर्जरा ज थया
करे छे. भेदज्ञान वडे जे वीतरागीद्रष्टि प्रगटी छे–तेनो आ महिमा छे.