ज्ञानी अन्य समस्त परिग्रहने जरापण ग्रहता नथी. परद्रव्य छेदाओ अथवा भेदाओ, अथवा
तेने कोई लई जाओ, तोपण हुं परद्रव्यने नहि परिग्रहुं. कारण के हुं तो ज्ञानमय ज छुं. ज्ञानथी
भिन्न कोई परद्रव्य मारुं स्व नथी, हुं परद्रव्यनो स्वामी नथी; आम ज्ञानी जाणे छे; तेथी ज्ञानना
ज स्वामीत्वपणे परिणमता ते अन्य कोईपण परिग्रहने किंचित ग्रहता नथी.
ज्ञानरूप परिणमन ज थाय छे; तेथी ज्ञानीने तो ज्ञानमयभावपणुं ज छे, ते ईच्छा–मय नथी माटे
अनीच्छक ज छे. ईच्छा के बाह्य वस्तुनो परिग्रह ज्ञानीने नथी; आ ईच्छा ते मारा ज्ञान साथे
एकमेक छे एवी पक्कड–परिग्रह ज्ञानीने नथी.
परिग्रहनी पक्कड ज्ञानीनी द्रष्टिमांथी छूटी गई. एक शुभविकल्पनो पण स्वामी थईने जे
परिणमे छे, ते विकल्पने किंचित् लाभरूप माने छे, ते जीवनी मिथ्याबुद्धिमां त्रण काळ
त्रणलोकना परिग्रहनी पक्कड छे. ज्ञानीधर्मात्मा जाणे छे के अरे, अमे तो चैतन्यआहारी–
चैतन्यविहारी; अमारा चैतन्यभावमां विकल्पनो भोगवटो पण नथी, तो बहारनी वस्तुनी वात
तो क्यां रही?