Atmadharma magazine - Ank 244
(Year 21 - Vir Nirvana Samvat 2490, A.D. 1964)
(Devanagari transliteration).

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: १६: आत्मधर्म माह: २४९०
ज्ञानी निष्परिग्रही छे
(भेदज्ञान वगर परिग्रह छूटे ज नहि)
(समयसार निर्जराअधिकारना प्रवचनमांथी)
स्व–परना यथार्थ भेदज्ञानवडे जेणे ज्ञाननो अनुभव कर्यो छे एवा ज्ञानी धर्मात्माए
पोताना ज्ञानमयभावमांथी समस्त परिग्रहने छोड्यो छे. ज्ञानना ज स्वामीत्वपणे परिणमता
ज्ञानी अन्य समस्त परिग्रहने जरापण ग्रहता नथी. परद्रव्य छेदाओ अथवा भेदाओ, अथवा
तेने कोई लई जाओ, तोपण हुं परद्रव्यने नहि परिग्रहुं. कारण के हुं तो ज्ञानमय ज छुं. ज्ञानथी
भिन्न कोई परद्रव्य मारुं स्व नथी, हुं परद्रव्यनो स्वामी नथी; आम ज्ञानी जाणे छे; तेथी ज्ञानना
ज स्वामीत्वपणे परिणमता ते अन्य कोईपण परिग्रहने किंचित ग्रहता नथी.
आहार करता होय, ते तरफनी ईच्छा होय, छतां ज्ञानी अनीच्छक ज छे; केमके ते
ईच्छाना काळे ज्ञानीने ते ईच्छा साथे ज्ञाननी एकतारूप परिणमन थतुं नथी, पण ईच्छाथी भिन्न
ज्ञानरूप परिणमन ज थाय छे; तेथी ज्ञानीने तो ज्ञानमयभावपणुं ज छे, ते ईच्छा–मय नथी माटे
अनीच्छक ज छे. ईच्छा के बाह्य वस्तुनो परिग्रह ज्ञानीने नथी; आ ईच्छा ते मारा ज्ञान साथे
एकमेक छे एवी पक्कड–परिग्रह ज्ञानीने नथी.
ज्ञान सिवाय जगतना कोई विषयनी के विकल्पनी पक्कड धर्मात्माज्ञानीने नथी. यथार्थ
भेदज्ञान वगर परिग्रहनी पक्कड कदी छूटे ज नहि. ज्यां यथार्थ भेदज्ञान थयुं त्यां जगतना सर्व
परिग्रहनी पक्कड ज्ञानीनी द्रष्टिमांथी छूटी गई. एक शुभविकल्पनो पण स्वामी थईने जे
परिणमे छे, ते विकल्पने किंचित् लाभरूप माने छे, ते जीवनी मिथ्याबुद्धिमां त्रण काळ
त्रणलोकना परिग्रहनी पक्कड छे. ज्ञानीधर्मात्मा जाणे छे के अरे, अमे तो चैतन्यआहारी–
चैतन्यविहारी; अमारा चैतन्यभावमां विकल्पनो भोगवटो पण नथी, तो बहारनी वस्तुनी वात
तो क्यां रही?
कुंदकुंदाचार्य जेवा महा समर्थ संत मुनि,