Atmadharma magazine - Ank 244
(Year 21 - Vir Nirvana Samvat 2490, A.D. 1964)
(Devanagari transliteration).

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: १८: आत्मधर्म माह: २४९०
संयोगोथी भिन्न पोताना ज्ञानानंद भावने जाणता धर्मात्मा पोताना चैतन्यथी भिन्न समस्त
परभावो प्रत्ये अवलंबन रहित छे; मने मारा चैतन्यनुं ज अवलंबन छे. ए सिवाय जगतमां
कोईनुं अवलंबन मने नथी. –आम एकला ज्ञायकभावना ज अवलंबने धर्मी ज्ञानभावपणे ज
परिणमे छे, तेथी ते ज्ञायक ज छे, ते रागी–द्वेषी नथी. रागद्वेषनी वृत्ति थाय तेना अवलंबननी
बुद्धि नथी, तेने स्वभावथी भिन्न जाणीने तेनुं अवलंबन छोडे छे. आ रीते धर्मीने अत्यंत
निष्परिग्रहीपणुं छे.
आत्मा पवित्र आनंदनुं धाम छे. ए निजनिधाननुं धर्मीने भान छे; ते
चैतन्यनिधाननी भावनामां रत धर्मात्माने पूर्व कर्मनो उदय होय तो पण तेउदयना काळे तेने
रागनो वियोग होवाथी ते पूर्व कर्म निर्जरी ज जाय छे. स्वभाव साथे संबंध थयो छे ने रागनो
वियोग थयो छे तेथी रागना अभावमां पूर्वकर्म पण निर्जरी ज जाय छे.
संयोगमां अनुकूळता हो के प्रतिकूळता हो पण धर्मीने ते संयोगनी पक्कड नथी. प्रतिकूळता
वखते पण तेनुं ज्ञान घेराई जतुं नथी, ते छूटुं ज रहे छे. एटले ते वखते य तेने निर्जरा चालु
ज छे; तेणे आखा चैतन्य गोळाने जुदो पाडयो छे, ते चैतन्यगोळामां परभावने के कर्मने
जरापण प्रवेशवा देतो नथी. अनुकूळताना गंज होय तो पण ज्ञानी तेमां लेपाता नथी, ज्ञानने
छूटुं ज राखे छे. आवी ज्ञानदशा अज्ञानीओना ख्यालमां आवती नथी. संयोगथी ने रागद्वेषथी
छूटुं पड्युं ने ज्ञान जगतना त्रणकाळ संबंधी परिग्रहनी पक्कड छोडी ते ज्ञाननी महत्ता अचिंत्य
छे, तेनी तेने खबर नथी. ज्ञानीओ स्वभाव–अवलंबन वडे पोताना आत्माने रागथी दूर
खसेडयो छे. ते हवे रागने जरापण वांछतो नथी; ज्यां रागने वांछतो नथी त्यां बाह्य
परिग्रहने केम वांछे? माटे ज्ञानी समस्त परिग्रहथी रहित छे. वर्तमान स्वसन्मुख परिणमेला
ज्ञानमां त्रणेकाळना परिग्रहनो अभाव छे. ने रागमां जेने एकताबुद्धि छे एवा अज्ञानीने
त्रणे–काळना परिग्रहनी पक्कड छे, रागना एक कणियाने जे वांछे ते त्रणकाळना सर्व परिग्रहने
वांछे छे. आ रीते भेदज्ञान वगर परिग्रह छूटे ज नहीं. भेदज्ञानी जीव, चक्रवर्तीना वैभव वच्चे
पण खरेखर निष्परीग्रही छे. अहो, ज्ञानीनी परिणति सहज वैराग्यरूप छे, तेना ज्ञान–