लक्षपूर्वक दानादिनो केवो उल्लासभाव आवे तेनुं सुंदर वर्णन एकवार गुरुदेवे कर्युं हतुं आत्मानुं
पूर्णानंद स्वरूप समजीने ते जेने प्राप्त करवुं छे एवा जिज्ञासुने निमित्त तरीके धर्मना दातार–आनंदना
दातार एवा धर्मात्मा प्रत्ये भक्तिभाव आवे छे, धर्मात्माने जोता ज तेना रोमेरोममां प्रमोद जागे छे के
अहा, आत्माने अनुभवनारा आ धर्मात्माओने माटे हुं मारा तन–मन–धन अर्पण करुं ते सफळ छे.
संसारना भोगोपभोग पाछळ लक्ष्मी खरचाय ते तो पापबंधनुं कारण छे, ने धर्मात्मा देव–गुरु–धर्मने
माटे लक्ष्मी वगेरे अर्पण करवानी भावनामां तो पोतानो धर्मप्रेम पोषाय छे.
कुशळ पुरुष नाटकमां स्त्रीनो वेष धारण करीने एवी चेष्टा करे के जोनारा जीवो तेने खरेखर स्त्री
समजीने विकारी थई जता होय... परंतु त्यां नाटक करनार पोते तो निःशंक समजे छे के हुं कांई स्त्री
नथी, हुं तो पुरुष छुं, स्त्रीना कपडां पहेर्या तेथी कांई हुं पुरुष मटीने स्त्री थई गयो नथी; अने
सभामां पण जे जाणकार होय ते ओळखी ल्ये छे के आ स्त्रीवेषमां देखाय छे ते खरेखर स्त्री नथी
पण पुरुष ज छे. तेम आ संसारना नाटकमां ज्ञानी धर्मात्मा कदाचित् स्त्रीना खोळीयामां रहेला
होय, त्यां बाह्यद्रष्टिथी जोनारा मूढ जीवो तेना आत्माने तो ओळखता नथी ने आ धर्मी जीव आम
बोल्या, ने तेणे राग कर्यो–एम ते देखे छे ने पोतामां पण रागनुं ते देहादिनी क्रियानुं कर्तृत्व मानीने
ते अज्ञानीओ प्रवर्ते छे, परंतु ते ज्ञानीधर्मात्मा पोते तो निःशंक जाणे छे के अमे स्त्री नथी, अमे तो
चिदानंदस्वरूप आत्मा छीए... शरीरनी क्रिया तो अमारी नथी; ने रागनी क्रिया तो ज्ञानमय छे. जे
जाणकार होय ते तो धर्मात्माने आवा स्वरूपे ओळखी ल्ये छे.