Atmadharma magazine - Ank 244
(Year 21 - Vir Nirvana Samvat 2490, A.D. 1964)
(Devanagari transliteration).

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माह: २४९० आत्मधर्म : २१:
भेदज्ञाना महिमारूप अपूर्व मंगळ
[संवर अधिकार उपरना प्रवचनोमांथी: फागण सुद बीज]
आ ज्ञान अने रागना भेदज्ञानरूप संवरनी अपूर्व वात छे.
अंतरमां आत्मार्थीपणुं ऊग्या वगर चैतन्यना पत्ता खाय नहीं. भाई, तारी चैतन्यसत्ता
रागमां ढंकाई गई नथी, रागथी जुदी ने जुदी तारी चैतन्यसत्ता छे. अज्ञानथी तने चैतन्यनुं
अने रागनुं एकपणुं भास्युं हतुं, पण भेदज्ञानना अभ्यासवडे बंनेनी अत्यंत भिन्नता
अनुभववामां आवे छे. ज्ञान अने रागनी भिन्नताना तीव्र अभ्यासवडे भेदज्ञान थाय त्यारे
एम अनुभवाय छे के आ ज्ञान छे ते ज हुं छुं, ने जे राग छे ते तो जड तरफनो भाव छे, ते
रागने मारा चैतन्य साथे आधार आधेयपणुं जरापण नथी. ज्ञान तरफनो भाव तो अनाकुळ
शांत छे, ने राग तो आकुळता–कलेशरूप छे. आवुं भेदज्ञान ते ज संवरनो उत्कृष्ट उपाय छे तेथी
आचार्यदेव शरूआतमां ज आवा भेदज्ञाननी प्रशंसा करीने तेने अभिनन्दे छे. (
अभिनन्दति).
अहो, भेदज्ञान थाय त्यारे ज्ञानथी भिन्न समस्त परभावो आकुळतारूप भासे छे;
भेदज्ञान थतां ज्ञानभावपणे ज आत्मा अनुभवाय छे, अणुमात्र पण राग पोतापणे
अनुभवातो नथी, अचळरूप ज्ञानपणे ज रहे छे. अने ज्ञान शुद्धपणे ज रहेतु थकुं जरा पण
रागादिभावने करतुं नथी. अने आवुं भेदज्ञान थतां ज आत्मा परम आनंदित थाय छे; कदी
नहि: थयेलुं एवुं ज्ञाननुं अपूर्व वेदन थतां ते आनंदित थाय छे, तेने जणाय छे के अहो, हुं तो
सदाय आवा ज्ञानस्वरूप ज रह्यो छुं, रागादिरूप हुं कदी थई गयो नथी. आनंदमां झूलता
आचार्यदेव कहे छे के हे सत्पुरुषो! आवुं भेदज्ञान करीने हवे तमे मुदित थाओ...... भेदज्ञानवडे
आनंदित थाओ!
जीवे भेदज्ञान कर्युं त्यां तेने ‘संत’ कह्यो; हे संतो! हवे तमे मुदित थाओ! प्रसन्न थाओ!
आनंदित थाओ. चैतन्यनो अनुभव करीने संतोए अंतरमां अतीन्द्रिय आनन्दने अनुभव्यो छे.
आवा भेदज्ञाननी प्रशंसावडे आचार्यदेवे तेने अभिनन्दन कर्युं छे... ने ते अपूर्व मंगळ छे.
आत्मामां आवुं भेदज्ञान प्रगटे ते अपूर्व मंगळ छे.
जे भेदज्ञान प्रगट्युं ते पोताना ज्ञानभावमां अविचळपणे रहे छे, ज्ञानथी जरापण
चलायमान थतुं नथी. –रागादिरूप थतुं नथी. साधु के श्रावक थया पहेलां अविरत सम्यग्द्रष्टि
थयो तेनी आ वात छे, तेने आवुं