अंतरमां आत्मार्थीपणुं ऊग्या वगर चैतन्यना पत्ता खाय नहीं. भाई, तारी चैतन्यसत्ता
अने रागनुं एकपणुं भास्युं हतुं, पण भेदज्ञानना अभ्यासवडे बंनेनी अत्यंत भिन्नता
अनुभववामां आवे छे. ज्ञान अने रागनी भिन्नताना तीव्र अभ्यासवडे भेदज्ञान थाय त्यारे
एम अनुभवाय छे के आ ज्ञान छे ते ज हुं छुं, ने जे राग छे ते तो जड तरफनो भाव छे, ते
रागने मारा चैतन्य साथे आधार आधेयपणुं जरापण नथी. ज्ञान तरफनो भाव तो अनाकुळ
शांत छे, ने राग तो आकुळता–कलेशरूप छे. आवुं भेदज्ञान ते ज संवरनो उत्कृष्ट उपाय छे तेथी
आचार्यदेव शरूआतमां ज आवा भेदज्ञाननी प्रशंसा करीने तेने अभिनन्दे छे. (
अनुभवातो नथी, अचळरूप ज्ञानपणे ज रहे छे. अने ज्ञान शुद्धपणे ज रहेतु थकुं जरा पण
रागादिभावने करतुं नथी. अने आवुं भेदज्ञान थतां ज आत्मा परम आनंदित थाय छे; कदी
नहि: थयेलुं एवुं ज्ञाननुं अपूर्व वेदन थतां ते आनंदित थाय छे, तेने जणाय छे के अहो, हुं तो
सदाय आवा ज्ञानस्वरूप ज रह्यो छुं, रागादिरूप हुं कदी थई गयो नथी. आनंदमां झूलता
आचार्यदेव कहे छे के हे सत्पुरुषो! आवुं भेदज्ञान करीने हवे तमे मुदित थाओ...... भेदज्ञानवडे
आनंदित थाओ!
आवा भेदज्ञाननी प्रशंसावडे आचार्यदेवे तेने अभिनन्दन कर्युं छे... ने ते अपूर्व मंगळ छे.
आत्मामां आवुं भेदज्ञान प्रगटे ते अपूर्व मंगळ छे.
थयो तेनी आ वात छे, तेने आवुं