Atmadharma magazine - Ank 244
(Year 21 - Vir Nirvana Samvat 2490, A.D. 1964)
(Devanagari transliteration).

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: २२: आत्मधर्म माह: २४९०
भेदज्ञान होय छे. आवुं भेदज्ञान ते संवरनो परम उपाय छे. भेदज्ञान थयुं त्यां शुद्धआत्माने
उपलब्ध कर्यो, ने शुद्धात्मानी उपलब्धिवडे रागादिना अभावरूप संवर थयो. आ रीते ज्ञानीने
संवर छे.
जिज्ञासु शिष्य पूछे छे के हे स्वामी! आपे एम समजाव्युं के भेदज्ञानथी ज शुद्ध आत्मानो
अनुभव थाय छे; तो ते शुद्धआत्मानी उपलब्धि ज थाय, ने बीजी रीते न थाय–ते कई रीते?
भेदज्ञान वडे ज शुद्धआत्मानी उपलब्धि कई रीते थाय? –एम शुद्धात्माना अनुभव माटे झंखता
शिष्यनो प्रश्न छे, तेने समजाववा आचार्यदेव (गा. १८४–१८पमां) कहे छे के: उपर कह्युं तेवुं
ज्ञान अने रागनुं भेदज्ञान वडे एम जाणे छे के गमे तेवा प्रचंड कर्मोदयवडे धेरायेलुं होय तोपण
मारुं ज्ञान तो ज्ञानरूप ज रहे छे. पांडवो जेवा धर्मात्मा ज्यारे ध्यानमां छे त्यारे धगधगता
अंगारा झरता लोहाभुषण तेने पहेरावे छे–शरीर सळगी ऊठे छे–एवा वखते पण अंतरमां
भान छे के मारुं ज्ञान तो ज्ञानपणे ज रह्युं छे, मारुं ज्ञान ज्ञानत्वने छोडतुं नथी. ए ज रीते
सम्यग्द्रष्टि गृहस्थपणे होय तोपण, गमे तेवा परिसह के उपसर्गमां तेने पोताना ज्ञानस्वभावनी
प्रतीत छूटती नथी, ते निःशंक जाणे छे के मारो आत्मा ज्ञानरूप ज छे. हजार कारणो भेगा थाय
तो पण मारा आत्माने ज्ञानस्वभावथी छोडाववा अशक्त छे. जेम गमे तेवी अग्निमां तप्त थवा
छतां सोनुं तो सोनुं जरहे छे, ते पोताना सोनापणाने छोडतुं नथी; तेम ज्ञानी गमे तेवी
प्रतिकूळताना घेरा वच्चे पण पोताना ज्ञानपणाने छोडता नथी. हजारो कारणो के दुनियाना
अनंत कारणो भेगा थवा छतां, अनंती प्रतिकूळता थाय छतां, वीजळी पडे के वजापात थाय
छतां, स्वभावने छोडवो अशक्य छे, एटले ज्ञानी पोताना स्वभावने कदी छोडतो नथी. ज्ञानीनो
स्वभाव ज ज्ञानमय परिणमवानो छे, तेने तेना ज्ञानमय परिणमनथी छोडाववा जगतमां कोई
समर्थ नथी.
राजमती, सीताजी वगेरे वगेरे धर्मात्मा सतीओ उपर गमे तेवा प्रसंग आववा छतां
तेओ पोताना ज्ञानस्वभावमां निःशंकपणे ज्ञानपणे ज वर्तता हता. ज्ञान अंशमात्र रागपणे थई
जतुं नथी.
ज्ञानी समकितीने प्रतिकूळताना गंज आवे तोपण तेनुं ज्ञान पोताना ज्ञानस्वभावमां ज
एकतापणे वर्ते छे. एनुं नाम परिसह अने उपसर्ग सह्या कहेवाय.
केटलुं सहन करवुं? के ज्ञानस्वभावमां आखा जगतथी जुदापणे टकी रहेवानी ताकात छे.
झाझा संयोग भेगा थाय तेथी तेने ज्ञानथी छोडावी घे–ए वात अशक्य छे. –ज्ञानी
ज्ञानस्वभावमां परिणम्यो ने ज्ञानधारा उपडी ते ज्ञानधारा अछिन्न धारावाही वर्ते छे. तेनी
धाराने तोडवानी कोईनी ताकात नथी, आवी