माह: २४९० आत्मधर्म : ३१:
श्रित रागभाव छे, तेना आश्रये भेदज्ञान थतुं नथी, तेना तो राग ज थाय छे. निश्चय
श्रद्धा–ज्ञान–चारित्र तो अंतर्मुख परिणति छे, ने व्यवहार श्रद्धा–ज्ञान–चारित्रमां तो
बहिर्मुख रागपरिणति छे. जे जीव आवुं भेदज्ञान करे छे, ते ज जीव राग साथेनी कर्ता–
कर्मनी अज्ञानप्रवृत्तिथी छूटे छे. भेदज्ञान थतांवेत ज ते पोताना चैतन्यस्वभाव साथे
एकताथी अने रागादि साथे भिन्नताथी सम्यग्दर्शनादि निर्मळकार्यरूपे परिणमे छे, ने
बंधनथी छूटे छे. आ रीते भेदज्ञानथी ज बंधननो निरोध थाय छे.
* हवे पूछे छे के ज्ञानमात्रथी ज बंधन कई रीते अटके छे? तेनो उत्तर आचार्य देव ७३ मी
गाथामां समजावे छे–
अशुचिपणुं, विपरीतता ए आस्रवोनां जाणीने,
वळी जाणीने दुःखकारणो, एथी निवर्तन जीव करे.
सम्मेदशिखरजीनी यात्राए गया त्यारे मधुवनमां आ गाथा वंचाणी हती. आत्मानो
चैतन्यस्वभाव पवित्र छे, सुखरूप छे, अने रागादि आस्रवो चैतन्यरहित छे, अशुचिरूप छे
तथा दुःख उपजावनारां छे. आ रीते आस्रवोनुं चैतन्यस्वभावथी विपरीतपणुं जाणीने
भेदज्ञानीजीव तेनाथी पाछो वळे छे. आ रीते भेदज्ञानथी बंधन अटकी जाय छे.
* भेदज्ञान एटले अंतर्मुख थयेलुं ज्ञान; तेनो स्वभाव ज क्रोधादिथी छूटा पडवानो छे. ज्ञाननो
उपयोग स्वभाव तरफ वळीने एकता करे अने रागादिथी भिन्नता न करे एम बने नहि;
एटले आत्मा तरफ वळेला भेदज्ञानने आस्रवोथी निवृत्तिनी साथे अविनाभावीपणुं छे.
* अहीं आचार्यदेव अलौकिक रीते आत्मा अने आस्रवोनुं स्पष्ट भेदज्ञान करावे छे. आत्माने
अने आस्रवोने विरुद्ध स्वभावपणुं छे तेथी तेमने एकता नथी पण भिन्नता छे.
* जुओ, रागथी जुदो पडे तो ज रागनुं खरुं ज्ञान थाय छे, रागमां एकता करे तेने रागनुं
पण ज्ञान थतुं नथी. चैतन्य छे ते रागथी अन्य छे; रागमां चैतन्यथी विपरीत स्वभावपणुं
छे एटले ते चैतन्यथी अन्य छे अने चैतन्यस्वभावी आत्मा तो स्वयं–रागना अवलंबन
वगर ज स्वपरने जाणनारो चेतक छे, ते चैतन्यथी अन्य छे. आ रीते आत्माने अने
आस्रवोने भिन्नस्वभावपणुं छे–एवा भेदज्ञानथी आत्माने बंधन अटकी जाय छे.
* अहा, द्रष्टि अपेक्षाए तो समकितीने मुक्त कह्यो छे. समकितीनी द्रष्टिमां बंधरहित शुद्ध
आत्मा ज छे, तेथी द्रष्टि अपेक्षाए