: ३२: आत्मधर्म माह: २४९०
तेने बंधन छे ज नहीं. जेम अंधकारने अने प्रकाशने भिन्नता छे, तेम अंधकार जेवा
आस्रवोने अने प्रकाश जेवा चैतन्यने अत्यंत भिन्नता छे. जेटलो पराश्रित व्यवहार छे ते
बधोय आस्रवोमां जाय छे, ते चैतन्यस्वभावथी भिन्न छे; ने जे स्वाश्रित निश्चय छे–स्वाश्रये
थयेली निर्मळ पर्याय छे. –तेने चैतन्यस्वभाव साथे एकता छे. आवा भेदज्ञानथी ज्यां
चैतन्य ज्यां चैतन्य साथे एकतारूप ने रागादिथी भिन्नतारूप परिणमन थयुं त्यां हवे बंधन
शेमा रहे? बंधन तो ज्यां आस्रव होय त्यां थाय, पण ज्यां आस्रवोथी छूटीने
चैतन्यभावमां वळ्यो त्यां बंधन थतुं नथी.
* जुओ, आ भेदज्ञान करवुं ते मूळ वात छे. भेदज्ञान वगर कई तरफ झूकवुं ने कोनाथी छूटवुं–
तेनी खबर पडे नहि, रागने ऊंडे ऊंडे साधन माने तेनुं वलण आस्रव तरफ ज छे, ते
आस्रवोथी छूटो पडतो नथी, आस्रवोथी भिन्न चैतन्यने ते जाणतो नथी.
* अरे जीव! आवा भेदज्ञाननी एवी द्रढता कर के त्रण लोकमां आस्रवनो अंश पण
चैतन्यस्वभावपणे न भासे; आवुं द्रढ भेदज्ञान थाय एटले परिणति अंतरमां वळ्या वगर
रहे नहि. परिणति ज्यां अंतरमां वळी त्यां पवित्रता प्रगटी, स्वपर–प्रकाशपणुं प्रगट्युं अने
अतीन्द्रियसुख प्रगट्युं, एटले दुःखनुं कारण न रह्युं, आ भेदज्ञाननुं कार्य छे.
* भाई, तारे भगवान थवुं छे? तो भगवान थवानुं कारण शु्रं राग होय? राग तो
भगवानथी विरुद्धभाव छे, ते तो भगवान थवानुं कारणकेम होय? रागथी जुदो पडीने
चैतन्यस्वभाव तरफ वळवुं ते ज भगवान थवानुं कारण छे. भगवान चैतन्य तो आनंदनुं
धाम छे, तेमांथी कदी दुःखनी उत्पत्ति थाय नहि. रागमांथी तो आकुळता अने दुःखनी उत्पत्ति
थाय छे, तो ते चैतन्यनो स्वभाव केम होय? अंतरना वेदनथी चैतन्यने अने रागने अत्यंत
जुदा पाडी नाख!
* पहेलां अज्ञानदशा हती त्यारे–अपनेको आप भूलके हैरान हो गया.... परंतु हवे ज्यां
भेदज्ञान थयुं त्यां–अपनेको आप जानके आनंदी हो गया.... भेदज्ञान थयुं त्यां अज्ञान
टळ्युं, ज्ञानमां प्रवर्त्यो ने आस्रवोथी निवर्त्यो, दुःखनुं कारण दूर थयुं ने सुखनुं वेदन प्रगट्युं;
आ बधानो काळ एक ज छे.
* आचार्यदेव ज्ञानना महिमांथी कहे छे के अहो! परमपरिणतिने छोडतुं अने भेदनां कथनोने
तोडतुं जे आ प्रत्यक्ष स्वसंवेदनरूप भेदज्ञान उदय पाम्युं छे, ते ज्ञानमां हवे विभाव साथे
कर्ताकर्मनी प्रवृत्तिनो अवकाश ज नथी, अने तेने बंधन पण नथी. जुओ, आ ज्ञान!! ज्ञान
परभावोथी छूटयुं; अहा, छूटकाराना पंथे चडेला आ ज्ञानने बंधन केम होय? मति–श्रुत
क्षायोपशमिकज्ञान होवा छतां स्वसंवेदन तरफ वळ्यां त्यां ते प्रत्यक्ष छे, अने ते ज्ञानने बंधन
नथी, तेमां विकारनुं कर्तृत्व नथी. चैतन्यना मध्यबिंदुथी ते ज्ञान ऊछळ्युं छे, तेने केवळज्ञान
लेतां हवे कोई रोकी शके नहि.