Atmadharma magazine - Ank 244
(Year 21 - Vir Nirvana Samvat 2490, A.D. 1964)
(Devanagari transliteration).

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: २: आत्मधर्म माह: २४९०
धर्मात्मानी अनुभूति
(समयसार गा. ३६ उपरना प्रवचनोमांथी.)
धर्मात्माने चिदानंदस्वभावनी अधिकतावडे परभावोथी भिन्न शुद्धआत्मानी जे अनुभूति
थई ते केवी छे? मारो आत्मा उपयोगस्वरूप छे, एक उपयोग ज मारुं स्वरूप छे–ए सिवाय
मोह साथे मारे कांई लागतुं वळगतुं नथी अंतर्मुख थयेली पर्यायमां जे अनुभूति थई ते
मोहरहित छे; मोह तो जड तरफनो भाव छे, चैतन्यस्वभाव तरफनो भाव ते नथी, माटे
चैतन्यनी अनुभूतिमां मोह साथे कांई संबंध नथी. –ज्ञाननो वेपार स्व तरफ वळ्‌यो त्यां
ज्ञायकस्वभावभावपणे ज आत्मा अनुभवाय छे, तेमां मोह अनुभवातो नथी. अस्थिरतानो जे
मोहभाव होय तेने ज्ञानी पोताना स्वभावपणे अनुभवता नथी. चैतन्यभावपणे ज पोताना
स्वभावने अनुभवे छे. चैतन्यस्वभाव कदी परभावपणे अनुभवातो नथी. चैतन्यभाव अने
मोहभावने भिन्न भिन्न करीने ज्ञानी चैतन्यभावपणे ज पोताने अनुभवे छे. आ रीते
चैतन्यस्वभावनी शाश्वत प्रतापसंपदा वडे भगवान आत्मा (–जेने भेदज्ञान थयुं छे एवा
जीवने अहीं भगवान आत्मा कह्यो छे ते) ज जाणे छे के परमार्थे हुं एक चैतन्यभावमय ज छुं,
बीजा जे रागादि भावो छे ते हुं नथी, ते भावो मारो स्व–भाव नथी. मारो चैतन्यस्वभाव एवो
नथी के मोहपणे परिणमे.
मोहमां एवी ताकात नथी के स्व–परने प्रकाशे; विश्वना समस्त पदार्थोने प्रकाशवामां
समर्थ एवी संपति तो चैतन्यमां ज छे, भगवान आत्मा ज पोतानी शाश्वती चैतन्यसंपदाना
प्रतापवडे समस्त विश्वने जाणवानी ताकातवाळो छे. चैतन्यशक्तिनो प्रताप सदाय विकासरूप छे;
मोह तो चैतन्यना विकासने अटकावनार छे. चैतन्यनो विकास शांत–अना–कुळ छे, ने मोहनो
विलास तो आकुळता अने दुःखमय छे. चैतन्यनो स्वाद अने मोहनो स्वाद जुदो छे. जेम
शीखंडमां दहींनो अने खांडनो स्वाद जुदो जुदो छे, तेम चैतन्यस्वभावनो अने मोहभावनो
स्वाद जुदो छे, आ रीते स्वादना भेदथी भेदज्ञान करीने धर्मीजीव मोहने जरापण पोतापणे
अनुभवता नथी. एक चैतन्यभावने ज पोतापणे अनुभवे छे. आ प्रकारनी अनुभूतिथी
धर्मात्माने भेदज्ञान थयुं. एटले परभावोने परपणे जाणीने तेने छोडी दीधा, ने ज्ञायकभावने
एकने ज स्वपणे जाणीने तेमां तन्मयता करी. आवी अनुभूति ते धर्म छे, ते मोक्षनो पंथ छे.