माह: २४९० आत्मधर्म : ३:
जे शांत अनाकुळ चैतन्यरसपणे स्वादमां आवे ते ज आत्मा छे. ते ज धर्मीनुं स्व छे, ते
ज ज्ञानीनी अनुभूतिनो विषय छे; अने जे आकुळतापणे विकारपणे स्वादमां आवे ते आत्मा
नथी, ते धर्मीनुं ‘स्व’ नथी, ते ज्ञानीनी अनुभूतिथी बहार रही जाय छे. जुओ, आ भेदज्ञान!
अनुभव वडे परभावोथी आवुं भेदज्ञान थाय त्यारे धर्मीनी शरूआत थाय.
धर्मात्मा पोताना अनुभवमां एम जाणे छे के हुं सदाय मारा चैतन्यरसथी भरेलो एक
छुं, परद्रव्यो के परभावो ते मारा नथी, नथी. हुं तो शुद्ध चैतन्यनो सागर छुं.
कहै विचक्षण पुरुष सदा मैं एक हूं,
अपने रससें भर्यो अनादि टेक हूं।
मोह करम मम नांही, नांही भ्रमरस कूप है।
शुद्धचेतना सिंधु हमारो रूप है।।
अहा, चैतन्यसागर एवो हुं, –तेमां मोहना कुवानो अभाव छे, हुं तो शुद्ध चैतन्यरसथी
ज भरेलो सागर छुं–एम विचक्षण–धर्मात्मा अनुभवे छे.
अहा, आ अवसर आ वस्तुनी प्राप्तिनो काळ छे. बहारना वादविवाद छोड, भाई!
अंदरमां आखो चैतन्यसागर–आनंदनो दरियो हिलोळा मारे छे तेनो अनुभव कर,
करुणाअष्टकमां प्रभुने प्रार्थना करतां श्री पद्मनंदीस्वामी कहे छे के हे वीतरागी परमात्मा!
आपना स्वरूपने ओळख्या वगर, अने आपे कहेला तत्त्वस्वरूपने ओळख्या वगर, आ
संसारमां में अनंतकाळ परिभ्रमण कर्युं, ने अनंत दुःखो भोगव्या, हे नाथ! हवे आपना शरणे
हुं फरी फरीने पोकारी–पोकारीने कहुं छुं के हवे मने एक आपनुं ज शरण हो, केवळज्ञान अने
वीतरागतामय जे शुद्ध चैतन्यपिंड तेनुं एकनुं ज हवे शरण हो... जेथी आ संसारभ्रमण टळे.
भगवाननुं शरण हो एटले परमार्थे वीतरागभावनुं ज शरण हो–एम तात्पर्य छे.
एकवार आखा संसारने लक्षमांथी छोडीने अंतरमां घणी धीरज अने घणा प्रयत्नवडे
अध्यात्मनी आ वात अंतरमां समजवी जोईए. आवा मनुष्यदेहमां अत्यारे अनुभवनो
अवसर आव्यो छे तेमां जो चूक्यो तो क्षणमां आ अवसर चाल्यो जशे. अरे, चैतन्यना अनुभव
वगर संसारनी चार गतिमां केवा केवा अवतार करी चुक्यो! तेनाथी छूटवानो आ अवसर
छे. चैतन्यसागरनो अंतरमां अनुभव करतां क्षणमां अनंत संसार तूटी जशे. एकवार
अंदरमां द्रढरुचिनुं एवुं घर जामी जवुं जोईए के कदी फरे नहि चैतन्यनो पत्तो लीधे ज
छूटको करे.