: ४: आत्मधर्म माह: २४९०
प्रभु! एकवार आ चैतन्यनी वातने अंतरमां गोठव तो खरो! अनंतकाळथी परभावो
गोठ्या छे तेनी गोष्ठी छोड, ने चैतन्यनी रुचि करीने तेनी साथे गोष्ठी कर जेने चैतन्यतत्त्व गोठ्युं
तेने परभावो केम गोठे? जेने खरेखर चैतन्यतत्त्व गोठे ते अंतरमां ऊतरीने तेनो अनुभव कर्यां
वगर रहे नहीं. आवा चैतन्यनो जेणे अनुभव कर्यो ते धर्मात्मा परमार्थे विचक्षण छे. परभावोथी
भेदज्ञान करवामां ते कुशळ छे. भेदज्ञाननी विचक्षणतावडे समस्त परभावोने पोताथी जुदा करीने
शुद्ध चैतन्यरसना पिंडपणे ते पोताने अनुभवे छे मारो आत्मा चैतन्यनो दरियो छे, ते दरियामां
विकार नथी भर्यो, तेमां आनंद वगेरे अनंत गुणो भर्या छे.
धर्मात्मा आठे कर्मोने पोताथी अत्यंत भिन्न जाणे छे ने पोताने चैतन्यसिंधु जाणे छे.
हुं चैतन्यनो सागर छुं, तेमां जडकर्मनो एक अंश पण नथी. हुं चैतन्यथी परिपूर्ण छुं, जडकर्म
साथे मारे कांईपण संबंध नथी. चैतन्यरसथी भरपूर महोदधि–मोटो दरियो आत्मा छे, तेमां
कर्म–नोकर्म के भावकर्म जरापण नथी. आवा स्वानुभवथी धर्मीने जे निर्मळ अनुभूति प्रगटी
ते अनुभूतिपर्यायमां पण मोहादिनो अभाव छे. आ रीते धर्मात्मा निर्मोह छे. ‘नथी मोह ते
मारो कंई उपयोग केवळ एक हुं’ –एम ते पर्यायमां अनुभवे छे;–आवी धर्मात्मानी
अनुभूति छे. मारी अनुभूतिने मोह साथे, राग साथे, देहसाथे कर्म साथे, मन साथे के वचन
वगेरे साथे कांई लागतुं वळगतुं नथी, मारी अनुभूति तो मारा शुद्ध चैतन्य उपयोगमय ज
छे. आम धर्मात्मा अनुभवे छे. आवा अनुभवथी तेणे मोहने मारी नाख्यो छे. ऊंधी
मान्यतावाळो मोहथी चैतन्यपर्यायने हणे छे, ने ज्ञानी धर्मात्मा चैतन्यना अनुभववडे
पोतानी पर्यायमांथी मोहने हणी नाखे छे. –आवी अनुभूति सहित जेणे आत्माने जाण्यो
तेणे ज खरेखर आत्माने जाण्यो छे.
लगनी अने प्राप्ति
आखा जगतना कोलाहलने छोडीने, खरा चैतन्यनी शोध पाछळ लाग,
चिदानंद तत्त्व शुं छे तेनो पत्तो मेळववा तेनी लगनी लगाडीने छ महिना तेना
अभ्यास पाछळ लागे, तो जरूर अंतरधाममां तने तारा चैतन्यनी आनंदसहित
प्राप्ति थशे. बीजी बधी कल्पना छोडीने एक चैतन्यना ज चिंतनमां लाग, तो
जरूर तेनी प्राप्ति तने तारामां ज थशे. खरेखरी लगनीथी चैतन्यनो पत्तो
मेळववा मागे अने तेनो पत्तो न मळे एम बने ज नहि; साचेसाची लगनीथी
प्रयत्न करतां चैतन्यतत्त्व स्वानुभवमां जरूर आवे छे.