Atmadharma magazine - Ank 245
(Year 21 - Vir Nirvana Samvat 2490, A.D. 1964)
(Devanagari transliteration).

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फागण: र४९० : आत्मधर्म : ३ :
मोक्षसुखमां महाली रह्या छे. ने अल्पकाळे पूर्ण मोक्षसुखने पामशे. जेना
अंतरमां लोभ रहे, आ लोकनी सगवडतानी आकांक्षा रहे, प्रतिकूळतानो भय रहे. के
परलोक संबंधी आकांक्षा रहे ते जीव परमात्म तत्त्वना ध्यानमां रही शकतो नथी. अरे,
मोक्षसुखनी ईच्छा ते पण लोभ छे, ते पण दोष अने आस्रव छे, ने तेटलो लोभ पण
मोक्षसुखने रोकनार छे. माटे भावलिंगी मुनिवरो तो निर्लोभ थईने परमात्म तत्त्वने
ध्यावे छे, तेमां परम आनंदरसनो ज प्रवाह वहे छे. नीचेनी भूमिकामां धर्मीने जराक
राग होय छे, पण तेने ते रागनो लोभ नथी, आ राग ठीक छे–एवो लोभ नथी
रागना फळमां ईन्द्रपद मळशे–एवो लोभ नथी, विदेहक्षेत्रमां अवतार थाय तो सारूं–
एवो पण लोभ नथी; निर्लोभ एवा परमात्मतत्त्वने तेणे जाण्युं छे. सर्व प्रकारना
लोभरहित थईने परमात्मतत्त्वना ध्यानमां लीनताथी मोक्ष थाय छे. मोक्षप्राप्तिनो
लोभ पण मोक्षने अटकावे छे, तो बीजा लौक्किपदार्थना के रागना लोभनी तो शी
वात? अरे जीव! आवा वीतरागभावरूप आराधना ते मोक्षनुं कारण छे.
मुनिवरोनी मति द्रढ सम्यकत्व वडे भावित छे, एटले दर्शनशुद्धिनी द्रढतापूर्वक
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रनी आराधना करवानुं कह्युं, तेमां दर्शन अने ज्ञान तो
आत्माना श्रद्धा–ज्ञानरूप छे, परंतु चारित्र कहेतां बहारनी क्रियारूप चारित्र कोई न
समजे, ते माटे आचार्यदेव चारित्रनुं स्वरूप स्पष्ट दर्शावतां कहे छे के चारित्र आत्मानो
स्वधर्म छे, अने ते आत्मानो स्वभाव ज छे; राग–रोषरहित जीवना अनन्य परिणाम
ते ज चारित्रधर्म छे. तेमां परम साम्यभाव छे, क््यांय ईष्ट–अनिष्ट बुद्धि नथी. अहा,
बधाय जीवो ज्ञानमय सिद्ध समान छे, वस्तुद्रष्टिए जीव अने जिनवरमां कांई फेर नथी,
जिनवर ते जीव, ने जीव ते जिनवर; आवी द्रष्टि तो चोथा गुणस्थानवर्ती सम्यग्द्रष्टिने
पण होय छे, ते उपरांत मुनिओ तो ध्यानमां एवा लीन थया छे के वीतराग
परिणामरूप स्वधर्म प्रगट्यो छे, परिणतिमां राग–द्वेष रह्या नथी,–आनुं नाम
चारित्रधर्म छे. चारित्र ए कोई वस्तु के बहारनी क्रिया नथी, ए तो जीवना अनन्य
वीतराग परिणाम छे, तेमां परम शांति–निराकुळता छे. अहा, आवी चारित्रदशामां
झुलता संत मोक्षने साधे छे.