Atmadharma magazine - Ank 245
(Year 21 - Vir Nirvana Samvat 2490, A.D. 1964)
(Devanagari transliteration).

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: ४ : आत्मधर्म फागण: र४९० :
परमात्मा हो के परमाणु हो, कोई वंदन करतो होय के कोई निंदा करतो होय–
सर्वत्र समभावपूर्वक, आत्मस्वरूपमां एकाग्रता रहेवी–तेनुं नाम चारित्र छे. जुओ,
आ जीवनो स्वधर्म! जेम ज्ञान ते जीवनो स्वधर्म छे तेम आवुं चारित्र ते जीवनो
स्वधर्म छे, ते जीवथी भिन्न नथी. जेम ज्ञान–दर्शन ते आत्माथी जुदां नथी तेम चारित्र
पण आत्माथी जुदुं नथी. देहमां चारित्र नथी, रागमां पण चारित्र नथी. राग तो
आत्माना स्वभावथी जुदा परिणाम छे, सिद्धदशामां ते राग नीकळी जाय छे, पण
चारित्र तो रहे छे. स्वरूपमां स्थितिरूप ते चारित्र आत्मानो स्वाभाविक गुण छे, ते
सिद्धदशामां पण आत्मा साथे अभेद रहे छे.
आत्माना स्वाभाविक परिणाम तो विशुद्ध छे,–वीतराग छे, पण परद्रव्य प्रत्ये
राग–द्वेष–मोहथी तेना परिणाममां मलिनता थाय छे. जेम स्फटिकमणि स्वभावथी तो
उज्वळ निर्मळ छे, तेमां अन्यफूलना संसर्गथी राता–काळा वगेरे रंगनी झांई देखाय छे;
तेम जीवद्रव्यमां स्वभावथी राग–द्वेष मोह नथी पण तेना परिणाम स्वरूपथी च्यूत थई
परद्रव्य साथे संबंध करीने रागादिरूप थाय छे, ते रागादिभावो खरेखर तेना स्वधर्मो
नथी. परिणमन तो पोतानी पर्यायमां छे पण ते परिणाम स्वभाव साथे अनन्यभूत
नथी. माटे तेने स्वभावथी अनेरापणे जाणीने, अने जीवना विशुद्ध चैतन्य स्वभावने
जाणीने तेमां एकाग्रताथी वीतरागी चारित्र प्रगट करवुं अने रागादि दोष टाळवा एवो
उपदेश छे.
रत्नत्रयना आराधक धर्मात्मा ज्यांसुधी वीतराग न थया होय ने निर्विकल्प
ध्यानमां स्थिर न होय त्यारे, ध्याननी परम प्रीतिपूर्वक तेने ध्यान करनाराओ प्रत्ये
पण विनय–बहुमान ने वात्सल्य आवे छे. श्री अरिहंतदेव तथा सिद्धपरमात्मा प्रत्ये
अने गुरु प्रत्ये विनय–बहुमान अने भक्ति आवे छे, ने पोताना समान बीजा साधर्मी
धर्मात्माओ प्रत्ये अनुराग–अनुमोदना आवे छे. मुनिओने आवो भाव होय छे तेम
कहेतां तेना पेटामां समकिती श्रावक–गृहस्थोनी वात पण आवी जाय छे. देवगुरु प्रत्ये,
–साधर्मी धर्मात्मा प्रत्ये जेने विनय–भक्ति–अनुराग न होय तेने तो धर्मनी प्रीति ज
नथी. धर्मीनी जेने रुचि प्रीति–नथी तेने धर्मनी ज रुचि–प्रीति नथी.
अहा, मुनिओनुं अने धर्मात्माओनुं ध्येय तो चैतन्य ध्यानमां ठरीने पूर्ण
वीतराग थवानुं छे; पण ज्यांसुधी राग छे, त्यांसुधी वीतरागताने पामेला देव अने
वीतरागताना उपासक एवा गुरु प्रत्ये विनय–भक्ति–बहुमान आवे छे. पोताने
ध्याननी रुचि छे एटले ध्यानवंत धर्मात्माने देखातां तेमना प्रत्ये पण भक्तिभाव
आवे छे. कुंदकुंद आचार्य जेवाने पोताने पण आवो देव–गुरुनी भक्तिनो भाव अने
साधर्मी प्रत्ये प्रमोद आवे छे. अहा, जेमना निमित्तथी आत्मा समजायो तेमना प्रत्ये
परम भक्ति आवे छे. सम्यग्द्रष्टि ज देव–गुरु प्रत्ये साची भक्ति ऊल्लसे छे, केमके
तेने ज खरी ओळखाण सहितनी भक्ति छे. मिथ्या–