Atmadharma magazine - Ank 245
(Year 21 - Vir Nirvana Samvat 2490, A.D. 1964)
(Devanagari transliteration).

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: १४ : आत्मधर्म पोन्नूर यात्रा–अंक
ने हर्षशोकथी पार छे. जे चेतना आत्माने चेते–जाणे ते ज खरुं चेतनालक्षण छे.
अज्ञानभावे अनादिथी अशुद्ध वेदन करी रह्यो छे. तेने बदले ‘हुं ज्ञाता छुं’ एवी
अंतरद्रष्टि वडे शुद्धतानुं ने शांतिनुं वेदन पण पोते करी शके छे. आ चैतन्यना स्वादनुं
वर्णन वाणीमां आवी शके नहि. जडना स्वादथी तो जुदो ने रागना स्वादथी पण पर–
एवो जे शांतअनाकुळ स्वाद, तेनो पिंड आत्मा छे. आ भाषामां के रेकोर्डिंगनी पट्टीमां
शब्दो ऊतरे छे, कांई अरूपी आत्मा एमां नथी ऊतरतो. अरूपी आत्मा ज्यां रागना
वेदनमांय नथी आवतो, त्यां जड वाणीमां तो ते क््यांथी आवे? सम्यग्दर्शना प्रथम
दरज्जे एटले के धर्मनी शरूआतना काळे प्रथम आवो आत्मस्वाद आवे छे. एना
महिमानी अपारता छे. जिनवाणी माता एनां गुणगानना हालरडां गाय छे.... जेम
लौक्किमां माता हालरडां वडे बाळकनां वखाण संभळावीने तेने सुवडावे छे.... केम के
पोतानां वखाण गोठे छे एटले ते सांभळतां सूई जाय छे; तेम जिज्ञासुने आत्माना
निजगुणनी प्रीति छे. भगवान तीर्थंकरदेव अने तेमना प्रतिनिधी संत–मुनिवरो
जिनवाणीरूपी हालरडा वडे गुणगान करीने आत्माने जगाडे छे: अरे जीव! जाग!
तारो आ अचिंत्य महिमा देख! आवा आत्माने द्रष्टिमां लईने पछी अंतरमां
लीनताथी अतीन्द्रिय आनंदना झूले झले तेनुं नाम चारित्रदशा अने मुनिपणुं छे.
आवो आत्मा जेणे द्रष्टिमां लीधो ते पूर्णानंदना पंथे चडयो, ते मोक्षना पंथे वळ्‌यो.
अहा, चैतन्यना अनुभव पासे ईंद्रना ईन्द्रासन पण तूच्छ लागे छे. चक्रवर्तीना वैभव
पण तरणां जेवा लागे छे. अरे, चैतन्यना अनुभवने कोनी उपमा अपाय? एनी
उपमा आपी शकाय एवो कोई पदार्थ जगतमां नथी. ज्यां आवो आत्मा स्वादमां
आव्यो ने सम्यग्दर्शन थयुं त्यां धर्मीजीव निजकार्यनो कर्ता थयो, ते ज धर्मनो खरो
कार्यकर्ता छे. बहारनां कार्य तो कोण करे छे? मोक्षार्थीनी कार्यसिद्धि तो चैतन्यना
अनुभवरूप सम्यग्दर्शनथी ज थाय छे. माटे साचो कार्यकर्ता ते छे के जेणे स्वानुभव वडे
सम्यग्दर्शनरूप कार्य कर्युं.
जागृति
मुमुक्षुमात्र सम्यग्द्रष्टि जीव समजवा नहि.
जीवने भुलवणीनां स्थानक घणां छे, माटे विशेष विशेष जागृती राखवी;
मुंझावुं नहि, मंदता न करवी. पुरुषार्थधर्म वर्धमान करवो.
श्रीमद् राजचंद्र