Atmadharma magazine - Ank 245
(Year 21 - Vir Nirvana Samvat 2490, A.D. 1964)
(Devanagari transliteration).

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पोन्नूर यात्रा–अंक आत्मधर्म : १५ :
वीतरागनी वाणी आत्माने
जीवतो करे छे
वीतरागनी वाणी सांभळतां अंदरमां वीजळी जेवो
झणझणाट थाय छे ने आत्मा जागी ऊठे छे. भाई!
चिदानंदप्राणने द्रष्टिमां झीलीने तारा चैतन्यने जीवतो कर.
अरे! विकारनुं कर्तृत्व मारा चैतन्यमां नथी; मारुं चैतन्य तो
विकारनुं अकर्ता छे–आ वीवीतरागवाणीने आत्मामा
झीलीने तुं तारा चैतन्यने जीवतो कर. अनादिथी अज्ञानने
लीधे भावमरणने प्राप्त थतो हतो तेने वीतरागनी
वाणीए जीवतो कर्यो. वाह, जुओ तो खरा! वीतरागनी
वाणी आत्माने जीवतो करे छे.
[राजकोट: फा. सु. ३ समयसारकलशटीका पर प्रवचनमांथी]
शुद्धचैतन्यसिंधु एवो आत्मा अंतरमां बिराजमान छे, तेने द्रष्टिमां लेवा माटे
अंदर केटली धीरज जोईए? बहारनी वात तो दूर रही, अंदरना विकल्पोथी पण पार
चैतन्यवस्तु छे. ते चैतन्यवस्तुने जीवे कदी जाणी नथी. अनादिनो ‘अज्ञ’ रह्यो छो, हवे
तेनुं ज्ञान करीने ‘सज्ञ’ था.... अरे प्रभु! तारो स्वभाव अंदर पूर्ण पड्यो छे तेनो
सत्कार कर.... तेने उपादेय कर.... एम सर्वज्ञ परमात्मानी निर्दोषवाणीमां फरमाव्युं छे.
आ सिवाय विकारने उपादेय कहे ते वाणी वीतरागनी नहि, ते दोषीला जीवनी वाणी
छे. चैतन्यसत्ता पोताना अनंत धर्मोथी भरपूर, ––जे अनुत्पन्न, अमिलन ने अविनष्ट
छे––एवी त्रिकाळी स्वतंत्र सत्ता, तेने परथी भिन्न अंतरमां देखवी–ते अनेकान्त छे.
वस्तु पोते गुणपर्यायस्वरूप छे; अभेदद्रष्टिथी गुण–पर्यायो ते ज वस्तु छे; आत्मां अने
तेना ज्ञानआनंद वगेरे गुणो एकमेक छे. आवा एकमेक स्वभावने द्रष्टिमां ले तो तने
सम्यग्दर्शन थशे.
“एक देखीए, जाणीए, रमी रहीए ईक ठोर”
आत्माना जे जे गुण–पर्यायोपणे आत्माने जुओ ते गुण–पर्यायपणे आत्मा ज
प्रतिभासे छे. परथी तो आत्मा भिन्न ज भासे छे, ने पोताना गुणपर्यायोथी एकमेक
भासे छे. आहा! पोताना गुणपर्याय पोतानी साथे एकमेक छे, पछी बीजो तेमां शुं
करे? बीजाना गुण–