Atmadharma magazine - Ank 245
(Year 21 - Vir Nirvana Samvat 2490, A.D. 1964)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 35 of 49

background image
: २० : आत्मधर्म पोन्नूर यात्रा–अंक
थईने स्वद्रव्यमां उपयोगने निश्वळ करवानो अभ्यास करवो; आ अभ्यास
ज मोक्षनुं कारण छे, ते ज कर्मना अभावनुं कारण छे.
जेनाथी तीर्थंकरप्रकृति वगेरे कर्म बंधाय एवा भावनो अभ्यास के भावना
धर्मीने नथी, धर्मीने तो चैतन्यमां लीन थईने शुद्धोपयोग प्रगट करवानो अभ्यास
अने भावना छे. तेनाथी ज समस्त कर्मबंध छेदाय छे. जेनाथी कर्मबंध थाय तेनी
भावना धर्मीने केम होय? –––न ज होय. उपयोग जो परद्रव्यने अनुसरे तो तेमां
अशुद्धता थाय छे ने कर्मो बंधाय छे, ने उपयोग जो स्वद्रव्यने अनुसरे तो तेमां
शुद्धता थाय छे ने कर्मबंध छूटी जाय छे. माटे भगवानना आगमनो (प्रवचननो)
आ सार छे के स्वद्रव्यने अनुसरवुं. परथी अत्यंत भिन्न जाणीने उपयोगस्वरूप
निजआत्मानुं ज अवलंबन करवुं. आ ज कल्याणनो पंथ छे. चारे अनुयोगनो आ
सार छे; माटे हे भव्य! चारे अनुयोगना प्रवचनमांथी तुं आ ज सार काढजे.
ज्ञानस्वरूप आत्माने स्वज्ञेय बनावीने, शुद्धोपयोग वडे तेमां निश्वल रहेनार
धर्मात्मा परद्रव्यो प्रत्ये अत्यंत मध्यस्थ छे तेनुं आ वर्णन छे.
हुं देह नहि, वाणी न, मन महि, तेमनुं कारण नहि,
कर्ता न, कारयिता न, अनुमंता हुं कर्तानो नहि. १६०
मारो ज्ञानस्वरूप आत्मा ज मारुं स्वज्ञेय छे; शरीर, वाणी के मन मारा
स्वज्ञेय नथी, ते परज्ञेय छे, ते परद्रव्य होवाथी तेना प्रत्ये मने कांईपण पक्षपात
नथी, तेमना प्रत्ये हुं अत्यंत मध्यस्थ छुं
अहा, जुओ तो खरा आ भेदज्ञाननी अपूर्व भावना! आ भावना भाववा
जेवी छे. ज्ञानस्वभाव सन्मुखनी आ भावना भवनो नाश करनारी छे.
शरीरादि परद्रव्योनी क्रियामां मारुं किंचित कारणपणुं नथी, शरीर, वाणी के
मन तेना स्वरूपनो आधार अचेतनद्रव्य छे, हुं तेनो जरापण आधार नथी. मारा
आधार वगर ज तेओ पोताना स्वरूपे वर्ती रह्या छे. वाणी बोलाय ते अचेतन
द्रव्यना आधारे बोलाय छे, मारा आधारे नहि; मारा आधार वगर ज ते तेना
स्वरूपे वर्ते छे. ‘हुं व्यवहारे तो तेनो कर्ता छुं ने? ’ –एम जेने पक्षपात छे तेने
परद्रव्य प्रत्ये मध्यस्थता थती नथी, तेने परनी उपेक्षा थती नथी.
धर्मी तो समजे छे के हुं ज्ञान छुं मारा ज्ञानने अने परने कांई लागतुंवळगतुं
नथी, अत्यंत भिन्नता छे. माटे परद्रव्यनो पक्षपात छोडीने हुं तो मारा ज्ञानस्वरूपमां
ज वळुं छुं; आ रीते हुं अत्यंत मध्यस्थ छुं.