Atmadharma magazine - Ank 245
(Year 21 - Vir Nirvana Samvat 2490, A.D. 1964)
(Devanagari transliteration).

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पोन्नूर यात्रा–अंक आत्मधर्म : २१ :
अरे भाई, एकवार तुं आ वात लक्षमां तो ले. बीजो पक्ष छोडीने आ वात
लक्षमां ले. नजीकनुं एवुं आ शरीर–मन के वाणी तेनो आधार पण तुं नथी, तेओ पण
तारा आधार वगर ज निजस्वरूपे कार्य करी रह्यां छे, तो जगतना बीजा पदार्थोनी शी
वात! छोड एनो पक्षपात! था अत्यंत मध्यस्थ, पर पक्ष छोड ने ज्ञाननुं लक्ष
कर....
शरीरादि अचेतन, अने हुं ज्ञानमूर्ति चेतन;––ते अचेतन पदार्थोनी क्रियानो
आधार हुं केम होउं? आधारपणे, कर्तापणे, प्रयोजकपणे के अनुमोदकपणे परद्रव्यना
कार्य साथे मारे किंचित् संबंध नथी. तेनी साथे मारे कांईज लागतुंवळगतुं नथी, माटे
तेनो पक्षपात छोडीने, अत्यंत मध्यस्थपणे हुं मारामां ज रहुं छुं. आ प्रमाणे जेने परना
कार्योनी द्रष्टि अत्यंत ऊडी जाय ते स्वना कार्यने संभाळी शके. पण ज्यां परना कार्योनुं
अभिमान करीने तेमां एकत्वबुद्धिथी वर्ततो होय त्यां स्व तरफ क््यांथी वळे? स्वज्ञेय
अने परज्ञेयनी अत्यंत भिन्नता जेणे जाणी नथी ते परज्ञेयथी निरपेक्ष थईने स्वज्ञेयमां
क््यांथी आवशे?
भेदज्ञानवडे स्व–परज्ञेयनी अत्यंत वहेंचणी करीने ज्ञानी जाणे छे के शरीरादिनां
कार्योनुं कारण अचेतनद्रव्य छे, हुं तेनुं कारण नथी; मारा कारणपणा वगर ज तेओ
स्वयं खरेखर कारणवाळा छे. शरीरनी क्रिया जीवना कारण वगर थाय? के हा, जीव
कारण थया वगर ज ते अचेतनद्रव्यो खरेखर कारणवाळा छे. तो पछी मारे तेनो पक्ष
केम होय? ––हुं तो अत्यंत मध्यस्थ छुं मारी दशा वच्चे अने तेनी दशा वच्चे अत्यंत
भेद छे, अत्यंत जुदाय छे, अत्यंत निरपेक्षता छे. माटे मारा स्वज्ञेयने ज अवलंबतो
थको हुं आ परद्रव्यो प्रत्ये अत्यंत मध्यस्थ छुं; तेमना प्रत्ये मने जरापण राग के द्रेष
नथी. आ ज्ञेय आम परिणमे तो ठीक, ने आम परिणमे तो अठीक, अगर हुं जराक
कारण थईने (के निमित्त थईने) तेमने परिणमावुं–एवो बिलकुल पक्षपात मने नथी.
हुं तो ज्ञाता थईने मध्यस्थ रहुं छुं
अहा, जुओ तो खरा... आ मध्यस्थभावना! ज्ञानस्वभावसन्मुखनी आ
भावना भवनो नाश करनारी छे, फरीने शरीरादि परद्रव्यनो संयोग ज न थाय ते
भवभ्रमण ज न रहे––एवी भेदज्ञाननी अर्पूव भावना छे. आ भावना भाववा जेवी
छे. आ भावना करतां ज्ञानस्वभावना आश्रये एकदम हळवो थई जाय, आकुळतानो
बोजो मटी जाय.
जो परनो पक्षपात करुं तो हुं मारा ज्ञानजीवनने खोई बेसुं. हुं तो ज्ञान छुं; मारुं
कारणपणुं तो मारा ज्ञानभावमां ज छे, परमां क््यांक मारुं कारणपणुं नथी–आम
भेदज्ञान करीने ज्ञानस्वभाव तरफ वळवाने बदले जेना अभिप्रायमां एम जोर आवे के
‘हुं निमित्तकारण तो छुं ने! व्यवहारथी तो परनुं कारण छुं ने! ’ ––तेना अभिप्रायमां
परनो पक्षपात छे, तेने हजी परद्रव्यना अभिमानना उकरडाथी खसवुं नथी, तेने
मध्यस्थज्ञाता नथी रहेवुं पण हजी पर तरफ झूकीने तेनुं निमित्त थवुं छे.