तारा आधार वगर ज निजस्वरूपे कार्य करी रह्यां छे, तो जगतना बीजा पदार्थोनी शी
वात! छोड एनो पक्षपात! था अत्यंत मध्यस्थ, पर पक्ष छोड ने ज्ञाननुं लक्ष
कर....शरीरादि अचेतन, अने हुं ज्ञानमूर्ति चेतन;––ते अचेतन पदार्थोनी क्रियानो
आधार हुं केम होउं? आधारपणे, कर्तापणे, प्रयोजकपणे के अनुमोदकपणे परद्रव्यना
कार्य साथे मारे किंचित् संबंध नथी. तेनी साथे मारे कांईज लागतुंवळगतुं नथी, माटे
तेनो पक्षपात छोडीने, अत्यंत मध्यस्थपणे हुं मारामां ज रहुं छुं. आ प्रमाणे जेने परना
कार्योनी द्रष्टि अत्यंत ऊडी जाय ते स्वना कार्यने संभाळी शके. पण ज्यां परना कार्योनुं
अभिमान करीने तेमां एकत्वबुद्धिथी वर्ततो होय त्यां स्व तरफ क््यांथी वळे? स्वज्ञेय
अने परज्ञेयनी अत्यंत भिन्नता जेणे जाणी नथी ते परज्ञेयथी निरपेक्ष थईने स्वज्ञेयमां
क््यांथी आवशे?
स्वयं खरेखर कारणवाळा छे. शरीरनी क्रिया जीवना कारण वगर थाय? के हा, जीव
कारण थया वगर ज ते अचेतनद्रव्यो खरेखर कारणवाळा छे. तो पछी मारे तेनो पक्ष
केम होय? ––हुं तो अत्यंत मध्यस्थ छुं मारी दशा वच्चे अने तेनी दशा वच्चे अत्यंत
भेद छे, अत्यंत जुदाय छे, अत्यंत निरपेक्षता छे. माटे मारा स्वज्ञेयने ज अवलंबतो
थको हुं आ परद्रव्यो प्रत्ये अत्यंत मध्यस्थ छुं; तेमना प्रत्ये मने जरापण राग के द्रेष
नथी. आ ज्ञेय आम परिणमे तो ठीक, ने आम परिणमे तो अठीक, अगर हुं जराक
कारण थईने (के निमित्त थईने) तेमने परिणमावुं–एवो बिलकुल पक्षपात मने नथी.
हुं तो ज्ञाता थईने मध्यस्थ रहुं छुं
भवभ्रमण ज न रहे––एवी भेदज्ञाननी अर्पूव भावना छे. आ भावना भाववा जेवी
छे. आ भावना करतां ज्ञानस्वभावना आश्रये एकदम हळवो थई जाय, आकुळतानो
बोजो मटी जाय.
भेदज्ञान करीने ज्ञानस्वभाव तरफ वळवाने बदले जेना अभिप्रायमां एम जोर आवे के
‘हुं निमित्तकारण तो छुं ने! व्यवहारथी तो परनुं कारण छुं ने! ’ ––तेना अभिप्रायमां
परनो पक्षपात छे, तेने हजी परद्रव्यना अभिमानना उकरडाथी खसवुं नथी, तेने
मध्यस्थज्ञाता नथी रहेवुं पण हजी पर तरफ झूकीने तेनुं निमित्त थवुं छे.