मध्यस्थता ने वीतरागता छे.
कहे छे के शुं मारा वगर थाय? शुं आत्मा विना बोलाय? हा भाई, आत्मा कर्ता
थया वगर ज वाणी बोलाय छे, आत्मा कर्ता थया वगर ज जगतना कार्यो थाय
छे, माटे परद्रव्यना कर्तृत्वनी बुद्धि छोड, तेनो पक्षपात छोड, तेनाथी भिन्न एवा
ज्ञानस्वभावमां वळीने मध्यस्थ था. आ ज सम्यक् दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप धर्मनी
रीत छे, आ ज सत्यनो राह छे.
ज्ञानस्वभावनुं स्वसंवेद करीने अत्यंत मध्यस्थता प्रगट करी छे.
परिणामात्मक शरीरना कर्तापणे होवामां सर्वथा विरोध छे. ’
वाणी–मन वगेरे समस्त परद्रव्योनी क्रियामां पण आत्मा कर्ता होवामां सर्वथा विरोध
छे अने जेम कर्ता होवामां सर्वथा विरोध छे तेम तेनो आधार होवामां पण सर्वथा
विरोध छे. तेनुं कारण होवामां पण सर्वथा विरोध छे. जेम पुद्गलमय परद्रव्य ते
आत्मा होवामां सर्वथा विरोध छे, तेम ते पुद्गलना कार्योनु कर्तापणुं आत्मामां होवानो
पण सर्वथा विरोध छे, आत्मा तेनो सर्वथा अकर्ता छे.
* ज्ञानतत्त्व स्व–परनुं जाणनार होवामां कांई विरोध नथी.
* पण ज्ञानतत्त्व परनुं कांई पण करे एमां सर्वथा विरोध छे.
* ज्ञान परनुं करे एवो व्यवहार नथी पण ज्ञान परने जाणे–एवो व्यवहार छे.