Atmadharma magazine - Ank 245
(Year 21 - Vir Nirvana Samvat 2490, A.D. 1964)
(Devanagari transliteration).

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पोन्नूर यात्रा–अंक आत्मधर्म : २३ :
* कर्तापणुं तो सर्वथा उडाडी दीधुं.
* आवुं अत्यंत भेदज्ञान करीने परद्रव्यनो पक्षपात छोडी दे.... .... ....
* ज्ञानने अंतरमां–स्वज्ञेयमां वाळीने अत्यंत मध्यस्थ था.
अरे जीव! तारुं ज्ञानतत्त्व परना भार वगरनुं हळवुं वीतरागी छे, तेमां परनी
मिथ्याकर्तृत्वबुद्धिथी परनो भार शा माटे वधारे छे? ज्ञानमां रहीने अत्यंत मध्यस्थ था,
तारा उपयोगने रागथी पण जुदो पाडीने शुद्ध कर. शुद्ध उपयोग ज परद्रव्यनना संगनुं
अकारण छे, एटले के मोक्षनुं कारण छे.
शरीर अने आत्माने अत्यंत घनिष्ट संबंध कह्यो होवा छतां कर्तापणानो संबंध
तो जरापण नथी. आत्मा शरीरनां कार्योने करे एवो जरापण संबंध होवामां अत्यंत
विरोध छे. ‘संबंध’ कह्यो छे ने? –पण कांई एकता तो नथीने? जरा पण एकता नथी
ने अत्यंत भिन्नता छे, एटले जरापण कर्तापणुं, कारणपणुं के आधारपणुं नथी; आम
जाणतो होवाथी धर्मात्मा कोई परद्रव्यना कार्यनो अनुमोदक पण नथी ने प्रयोजक पण
नथी. ज्ञानी तो सहज शुद्ध ज्ञान–दर्शन स्वभावना स्वसंवेदनमय पोताने अनुभवे छे.
आत्मा अनुमोदक थया वगर ज शरीर आदिनां कार्यो तो स्वयं थाय ज छे. “आ कार्य
आम थाय तो ठीक” –एवी जीवनी अनुमोदना न होय तो पण जगतना पदार्थो तो
स्वयं पोतपोताना कार्यने करी रह्या ज छे. माटे आत्मा खरेखर परद्रव्यना कार्यनो
अनुमोदक नथी.
अरे जीवो, ज्ञानीने जो परद्रव्यना कर्तापणे के अनुमोदक पणे देखशो तो तेनी
ओळखाणमां तमारी भूल थशे.... तमे भ्रममां पडशो. आ प्रवचनसारशास्त्रना शब्दो
रचाय छे के वाणी बोलाय छे माटे अमे (आचार्य) तेना कर्ता हशुं के जडनी क्रियाना
अनुमोदक हशुं एम जो मानशो तो अमने अन्याय थशे, अमारी ओळखाणमां तमारी
भूल थशे. माटे भ्रांतिमां न पडशो. अमे तो आत्मा छीए, अमारी संमति–अमारी
अनुमोदना तो चिदानंदस्वभावमां ज छे. एनाथी भिन्न समस्त परद्रव्यो प्रत्ये अमे
अत्यंत अकार्ता छीए. तेनुं जरापण कर्तापणुं, कारणपणुं, अनुमोदकपणुं अमने नथी,
एक दोकडो पण नथी.
वाह! जुओ तो खरा आ संतोनी दशा, वनमां बेठा बेठा जड चैतन्यनी अत्यंत
भिन्नता करीने ज्ञानस्वभावमां मशगुल थईने अत्यंत मध्यस्थ थया छे. आवुं
मध्यस्थपणुं ते सर्व प्रवचननो सार छे.