Atmadharma magazine - Ank 245
(Year 21 - Vir Nirvana Samvat 2490, A.D. 1964)
(Devanagari transliteration).

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: २६ : आत्मधर्म पोन्नूर यात्रा–अंक
बहु पुण्यकेरा पुंजथी शुभदेह मानवनो मळ्‌यो,
तोये अरे, भवचक्रनो आंटो नहीं एक्के टळ्‌यो;
सुख प्राप्त करतां सुख टळे छे लेश ए लक्षे लहो,
क्षण क्षण भयंकर भावमरणे कां अहो राची रहो?
आवो मनुष्यदेह रत्नचिंतामणि समान छे, तेमां शांतिथी आत्माने सावधान
करीने मनुष्यभव सफळ करवा जेवुं छे; नहितर तो आ रत्न, चौटामां पडेला रत्ननी
जेम चोराई जशे. बधाय आत्मामां (अहीं बेठा छे ते दरेक आत्मामां पण) एवी
ताकात छे के प्रभुता प्रगटावी शके ने दोषनो नाश करी नांखे, आत्माना भान वडे
सज्जनता प्रगटावीने दोषनो नाश थई शके छे. कोई व्यक्ति उपर द्वेष न होय. बधा
आत्मामां प्रभुता भरी छे, तेनुं पोते भान करीने ते प्रगटावी शके छे.
क्षणिक आवेशथी तीव्र राग–द्वेषमां के क्रोधमां तणाई जाय तो आत्मानुं भान न
थाय. विचार करवो जोईए के अरे! जीवनमां केवुं कार्य करवा जेवुं छे! सत्समागमे
आत्मानुं भान नाना बाळक पण करी शके छे, अरे, सिंह वगेरे पशु पण एवुं भान
करी शके छे, पापीमां पापी जीव पण क्षणमां पोताना विचार पलटीने आवुं भान करी
शके छे; ‘सो उंदर मारीने बिल्ली पाटे बेठी’ –एम घणां पाप कर्या ने हवे जीवन केम
सुधरी शके? –एवुं नथी; भाई, पापनुं प्रयश्वित करीने, क्षणमां पापने टाळी शकाय छे
ने जीवनने सुधारी शकाय छे. आ मनुष्यभव पामीने ए करवा जेवुं छे.
विद्वत्ता अने ज्ञान
विद्वत्ता अने ज्ञान एक समजवानुं नथी, एक नथी,
विद्वत्ता होय छतां ज्ञान न होय.
साची विद्वत्ता ते के जे आत्मार्थे होय, जेनाथी आत्मार्थ सरे,
आत्मत्व समजाय, पमाय; आत्मार्थ होय त्यां ज्ञान होय,
विद्वत्ता होय वा न पण होय.
(श्री. रा. उपदेशनोंध: १९)