: प्र. चैत्र : आत्मधर्म : १३ :
(––आत्मानी अनंतशक्तिनो) विचार करवो, ने देहनी आडे भिन्नतानी पाळ
बांधी देवी. अंदर चैतन्यबादशाह बिराजे छे ते महा चैतन्य परमेश्वर छे, तेना विचार–
मनन करवुं. अंदर भगवान आत्मा आनंदनो दरियो छे. आनंद आत्मामां छे तेनी
रुचि अने विश्वास घूंटवा जोईए. आत्माने अने आस्रवभावोनेय ज्यां एकता नथी
त्यां देह साथे तो एकतानी वात ज शी?
भगवान महावीर मोक्षमां पधार्या... हवे समश्रेणीए जे स्थानमां गया त्यां
सिद्धालयमां सादि अनंत काळ सुधी... अनंतकाळ सुधी एक ज स्थानमां पूर्णानंदपणे
एमने एम रहेवाना. संसारभ्रमणमां तो घडीकमां अहीं ने घडीकमां बीजी गतिमां, ––
अहींथी त्यां भ्रमण थतुं, एक स्थाने स्थिरता न हती; हवे आत्मा पोतामां पूरो स्थिर
थतां बहारमां पण सादिअनंत एक ज क्षेत्रे स्थिर रहे छे––आवुं याद करीने भावना
तेनी भाववा जेवी छे. आ शरीर तो रोगनुं घर छे, एमांथी आत्मा जेवो भिन्न छे तेवो
काढी लेवो. पहेलांं द्रष्टिमां ने ज्ञानमां एने जुदो तारवी लेवो.
आत्मामां तो वीरता भरेली छे, आत्मा तो वीर छे. शरीर जवानी तैयारी होय
तो राखवानुं शुं काम छे? आत्माने शरीर जोईतुं नथी, ते जतुं होय तो भले जाय.
आत्माने शरीर जोईतुं नथी ने सिंह खाई जता होय तो भले लई जाय... मुनिने क्षोभ
थतो नथी.. ए तो जाणे मित्र मळ्यो! –आवी अपूर्वदशा क््यारे आवशे तेनी भावना
भावी छे. संसार छे ए तो... शरीरनुं हाल्या ज करे... खरूं तो आत्मानुं करवानुं छे.
मरणटाणे जिंदगीना अभ्यासनो सरवाळो आवे छे; ए वखते भेदज्ञानपूर्वक के
तेनी भावनापूर्वक शांतिथी देह छोडे तेनुं डहापण साचुं.
आत्मामां बेहद सामर्थ्य छे... ‘ज्ञ’ स्वभाव... सर्वज्ञस्वभाव... बेहदस्वभावथी
आत्मा भरेलो छे; जेनो ‘ज्ञ’ स्वभाव तेने जाणवामां वळी हद शी! जगतने मरणनी
बीक छे पण ज्ञानीने तो आनंदनी लहेर छे. मरण कोनुं? आत्मवस्तु शाश्त छे एनुं
भान थयुं त्यां मरणनो भय नीकळी गयो. जन्मे कोण ने मरे कोण? शरीर अने
आत्मानी भिन्नतानो जे अभ्यास कर्यो तेना प्रयोगना आ टाणा छे.
सामे आस्रव–योद्धो छे ने अहीं ज्ञान–योद्धो छे; सम्यग्द्रष्टि––बाणावली
भेदज्ञानरूप तीरवडे आस्रवोने जीती ले छे. आवा ज्ञाननो विचार करवो. आत्मा
सिवाय बीजुं कांई शरण नथी. आ तो आस्रव सामेनो संग्राम छे; संग्राम छे; संग्राम
माटे आत्माने तैयार राखवो.
शरीर राजीनामुं आपे छे. ––तो भले जाय; आत्मा तो अविनाशी एकलो छे.
जुओने, एकवार वैराग्यथी गायुं हतुं ने! –
आतमराम अविनाशी आव्यो एकलो, ज्ञान अने दर्शन छे तारुं रूप जो...
बहिरभावो ते स्पर्शे नहि आत्मने, खरेखरो ए ज्ञायक वीर गणाय जो...