: १४ : आत्मधर्म : प्र. चैत्र:
बस एक ज वात! जुओ तो खरा, आवो आत्मा ओळखे तेने ज्ञायक–वीर
कहेवाय. आ तो वीरताना मारग छे.
आत्मा क्यांकथी एकलो आव्यो ने बधा कुटुंबकबीला भेगा थया... पाछा
वीखेराई जवाना; शरीरना परमाणु पण वींखाईने छूटा पडी जशे. तेम आ बधुं
पंखीमेळा जेवुं छे. शरीरना रजकणो भेगा थाय ने तेनो काळ पूरो थतां वींखाई जशे.
चैतन्यतत्त्व एकलुं छे ते अविनाशी छे. बाकी आ संयोगमां कांई नथी.
आत्माना विचार राखवा... आत्मा छे ते ज्ञान छे. योगसारमां कहे छे के ‘सर्व
जीव छे ज्ञानमय. ’ आत्मसिद्धिमां पण आवे छे के ‘सर्व जीव छे सिद्धसम’ ज्ञानमय ते
ज आत्मा छे. बाकी बीजी बधी लप छे, ते तो आवे ने जाय. शरीर पण आवे ने जाय;
राग पण आवे ने जाय. आत्मा कायम ज्ञान... ज्ञान... ज्ञानपणे रहे छे. ––आम जाणवुं
तेमां खरो समभाव छे. ज्यां ज्यां ज्ञान त्यां त्यां आत्मा. ––एवो अविनाभाव छे. राग
वगरनो आत्मा. ––एवो अविनाभाव छे. राग वगरनो आत्मा होय पण ज्ञान वगरनो
आत्मा न होय.
आत्मा परमां ने विकल्पमां रखडे छे ते पोताना स्वभावघरमां आवीने रहे ते
खरूं वास्तु कहेवाय. आत्मा ईन्द्रियोथी न जाणे; अने ईन्द्रियोथी ते जणाय पण नहि.
ज्ञानथी आवो आत्मा जणाय छे; ते पोताना अंदरमां ज छे पण ‘मारा नयनोनी
आळसे रे... में नीरख्या न हरिने जरी... ’ नजर करनारो पोतामां नजर न करे ने
परमां देख्या करे–तेमां शांति क््यांथी मळे?
देह सुकाई जाय, ए तो क्षणभंगुर छे. एक माणसनो भाषण करतांकरतां देह
छूटी गयो. एक दाखलो आवे छे के शूरवीर राजा हाथी उपर बेठो छे, सामेथी बाण छूटे
छे ने शरीर वींधाई जाय छे... पण राजा पडतो नथी, अंते देह नहि टके एम लागतां
हाथीना होदे् बेठोबेठो ज संयमभावनामां चडी जाय छे... तेम प्रतिकूळता ने परिषहोना
बाण उपर बाण आवे तोपण पुरुषार्थपूर्वक तेनी सामे ऊभो रहीने धर्मी ते झील्या करे...
पोताना मार्गथी डगे नहि. ज्ञानस्वरूप आत्मा आनंदमूर्ति एकलो छे तेनुं लक्ष वारंवार
घूंटवुं.... एनो दोर बांधी लेवो. जेम करोळीओ पाणीमां चाली न शके एटले पोतानी
लाळथी जाळनो दोर बांधीने तेना उपर सडसडाट चाल्यो जाय... तेम चैतन्यनी रुचिनो
दोर बांधी लीधो होय तो आत्मा सडसडाट ते मार्गे चाल्यो जाय.
उपयोग बराबर राखवो; सावचेत रहेवुं. देहनुं तो थवुं होय ते थाय. शरीरने शुं
करवुं छे? काळरूपी सिंहने ए जोईतुं होय तो भले लई जाय. ––तेमां आत्माने शुं? जो
के कटोकटीनो काळ ज्यारे आवे त्यारे काम तो आकरुं छे, पण समता राखवी, शरीरमां
साता होय त्यारे आकरूं न लागे पण बराबरनी असाता आवे ने प्रतिकूळ प्रसंग होय
त्यारे तेनी सामे झझूमवा आत्माने घणो पुरुषार्थ जोईए.
अरिहंतप्रभुए कहेला भावने आत्मामां धारी राखवो, देहथी भिन्न ने रागथी
भिन्न एवा आत्मभावने धारण करवो ते धर्म छे, ते मंगळ छे. धवलामां श्री
वीरसेनस्वामी