: १६ : आत्मधर्म : प्र. चैत्र:
शरीर पडे तो पडो... ते तो पडवानुं छे ज; आत्मा क््यां नाश थवानो छे? आत्मा
अनादि छे; खोळियुं बदले तेथी कांई आत्मा बीजो थई जतो नथी. विभावमां स्वभाव
नहि ने स्वभावमां विभाव नहि. ज्ञानमां राग पण नथी, पछी शरीर तो क््यां रह्युं? कर्म
के नोकर्म पण ज्ञानमां नथी. संवरअधिकारमां ए वातनुं सरस भेदज्ञान कराव्युं छे. अरे,
परसत्ताने अवलंबतो परालंबी उपयोग पण निश्चयथी आत्मानुं स्वरूप नथी;
स्वसत्ताने अवलंबनारो स्वालंबी उपयोग ते ज खरो आत्मा छे. प्रयोगमां मुकवानो
अवसर छे.
आत्माना निरालंबी उपयोगने कोई हरी शकतुं नथी. शरीरमां रोग आवे के
बीजी कोई प्रतिकूळता आवे तेनामां एवी ताकात नथी के आत्माना उपयोगने हणी
नाखे. कोईथी हणाय नहि एवा शुद्धउपयोगस्वरूप आत्मा छे, शुभाशुभपरिणामस्वरूप
खरेखर आत्मा नथी. आवा आत्माना विचार राखवा. आत्मा ईन्द्रियोथी भिन्न छे,
ईन्द्रियोद्वारा ते सुखदुःखनो भोक्ता नथी. दुःख तो क्षणिक कृत्रिम विकार छे, ने आनंद
आत्मानो त्रिकाळ शाश्वत अकृत्रिम स्वभाव छे–माटे आनंदस्वभावनी द्रष्टिमां आत्मा
दुःखनो भोक्ता नथी. आवो आत्मा लक्षमां ल्ये त्यां मरणनी बीक केवी? जगतने मरण
हुं तो ज्ञान छुं एवी श्रद्धाथी ज्ञानी वजापात थाय तो पण डगता नथी, ने
निजस्वरूपनी श्रद्धाने छोडता नथी. शरीर भले मोळुं पडे पण आत्माना भाव तेज
राखवा.
ज्ञाननुं अचिंत्य माहात्म्य छे. अनंत आकाशने ने अनंतकाळने ज्ञान गळी जाय
छे. अनंत–अमाप आकाशना पूरा अस्तित्वनो निर्णय श्रुतज्ञान पण करी ले छे, तो
रागरहित पूर्णज्ञानमां केटली ताकात हशे!! आवा आवा तो अनंतगुणनी ताकातवाळुं
द्रव्य अंदर पड्युं छे. –एना विचारमां रहेवुं. आ शरीरनुं माळखुं तो हवे रजा मागे एवुं
छे. चैतन्य तो नक्करपिंड छे, ने आ शरीर तो खोखुं छे.
भेदज्ञानवडे दारूण विदारण करीने–उग्र पुरुषार्थ वडे रागने आत्माथी अत्यंत
जुदो करवो. मारा जागृत चैतन्यस्वरूपमां राग नथी, ने रागमां चैतन्यनो प्रकाश नथी.
राग तो अद्धरनो क्षणिकभाव छे, एना मूळिया कांई ऊंडा नथी.
नमः समयसाराय ए मंगलश्लोकमां आचार्यदेवे शुद्ध आत्मानुं अस्तित्व, तेनो
ज्ञानगुण, तेनी स्वानिभूतिरूप निर्मळदशा अने केवळज्ञाननुं सामर्थ्य––ए बधुं बतावी
दीधुं छे. एक श्लोकमां घणुं भरी दीधुं छे. आवा विचारमां रहेवुं. बहारनुं तो थवुं होय
तेम थशे.
समयसारमां कहे छे के घोर–प्रंचड कर्म उदयमां आववा छतां धर्मीजीव पोताना
स्वरूपथी डगता नथी; सातमी नरकनी वेदनाना परिषह वच्चे पण समकिती धर्मात्मा
निजस्वरूपनी श्रद्धाने छोडता नथी. ‘हुं ज्ञान छुं’ एवी श्रद्धाथी ज्ञानी वजापात थाय तो
पण डगता नथी. ––अहीं तो शुं प्रतिकूळता छे?