: प्र. चैत्र : आत्मधर्म : १७ :
जडमां फेरफार थाय तेमां आत्माने शुं छे? संसार तो आवो ज छे.
आत्मानो स्वभाव स्वसहाय छे, पोते ज पोतानुं शरण छे; बीजे क््यांय शरण
नथी, बीजुं कोई सहायक नथी. आत्मा सिवाय बीजे क््यांय नजर नाख्ये शरण मळे
तेम नथी. चैतन्यस्वभाव सामे नजर करीने तेनुं ज शरण करवुं. स्वशरण ए ज सहाय
छे. बीजुं कोण शरण थाय? शरीरना रजकणो फरवा मांडया त्यां सगावहाला तो पासे
उभा उभा जोता रहे... बीजुं शुं करे? जगतमां कोई शरण नथी. चैतन्यनुं ध्यान राखवुं.
चैतन्यनुं चिंतन ए एक ज उद्धारनो रस्तो छे; बीजा कोई रस्ते उद्धार नथी.
संतोनी वैराग्यझरती वाणी मुमुक्षुने सर्वप्रसंगे खूब ज उत्साहप्रेरक होय छे.
अरे, बीजी तो शी वात! परंतु संतगुरुजनोनी उपस्थिति मृत्यु समयनी वेदनाने पण
भूलावी दे छे ने आत्माने धर्ममां एवो उत्साहित करे छे... के अविनाशी आतमरामनुं
रटण करतां करतां देह छूटी जाय छे. जीवनमां आवा संतोनो योग कोई अनेरा
भाग्यथी ज मळे छे... ने तेमांय अंतिम समये, धर्मात्मानी हाजरीमां चैतन्यनी
भावनापूर्वक देह छूटे ते तो बहु विरल छे. तेथी ज एक मुमुक्षुकविए ए प्रसंगनी
भावना भावी छे के:–
धर्मात्मा नीकट हो... चर्चा धरम सुनावे, वे सावधान रखें, गाफिल न होने देवे
रत्नत्रयी का पालन हो अंत में समाधि, शिवराम प्रार्थना है जीवन सफळ बनाउं.
आपणे पण एवी भावनानी पुष्टि करीए के–
बोधि–समाधि हे प्रभो! हो संत केरा चरणमां,
जीवनमां के अंतसमये, छूटे प्रभु नहि ए कदा.
दु:षमकाळमां सावधानी
वर्तमान दुषमकाळ वर्ते छे. मनुष्योनां मन पण दुषम ज जोवामां आवे
छे. घणुं करीने परमार्थनो देखाय करी स्वेच्छाए वर्ते छे.
एवा वखतमां कोनो संग करवो, कोनी साथे केटलुं
बोलवुं, कोनी साथे पोताना केटला कार्यव्यवहारनुं स्वरूप
विदित करी शकाय, ए बधुं लक्षमां राखवानो वखत छे. नहीं
तो सद्वृत्तिवान जीवने ए बधां कारणो हानिकर्ता थाय छे.
आनो आभास तो आपने पण हवे ध्यानमां आवतो हशे.
–श्रीमद्राजचंद्र ९४७